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जहाँ जाओ बेतरतीब मन साथ हो लेता है

कितने शहर देखे
कितने ही आकाश जिए
स्नेह सुकून से परिपूर्ण
ज़रा सी धरा के लिए


पर न मिलना था न मिला सुकून
बेतरतीब मन में बजती ही रही विचलित करने वाली धुन 


धूल से भरे हुए जूतों में
भटकन के मानचित्रों का इतिहास लिए
रास्तों की धुंध पर
उँगलियों से कविता उकेर कितने ही हमने गम सिए 


पर न मिलना था न मिला सुकून
बेतरतीब मन में बजती ही रही विचलित करने वाली धुन 


बादलों में उग रहा था समय
कितने-कितने कैसे-कैसे आकार लिए
हमने अपनी ज़मीं की सीमा से
वो सारे अनगिन आकार जिए 


पर न मिलना था न मिला सुकून
बेतरतीब मन में बजती ही रही विचलित करने वाली धुन 


कितने शहर देखे
कितने ही आकाश जिए
स्नेह सुकून से परिपूर्ण
ज़रा सी धरा के लिए



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