अद्यापि अस्माकं गीताज्ञानयात्रामोक्षसन्यासयोगोनामष्टादशोऽध्ये प्रचलति!
प्रिय बन्धुगण!कल हमारी यात्रा इस "मोक्षसंन्यासयोग"नामक अठारहवें अध्याय के तिरसठवें श्लोक तक हो चुकी. इस अन्तिम अध्याय में अठत्तर श्लोक हैं. अब उपसंहार रूप में पन्द्रह श्लोकों पर ध्यान केन्द्रित करना है.
हमने देखा तिरसठवें श्लोक में भगवान् अर्जुन से कहते हैं कि-- हे अर्जुन! इस प्रकार यह गोपनीय से भी अति गोपनीय ज्ञान मैंने तुझसे कहा-- अब तू "एतत् अशेषेण विमृश्य यथेच्छसि तथा कुरु"अर्थात्, मेरे द्वारा दिये गए ज्ञान पर भली प्रकार से विचार करलो, तारतम्य छूटने न पाय, फिर तुम जैसा चाहो वैसा करो! यहां यह स्पष्ट है कि अर्जुन या हमारे आपके जैसे साधारण मनुष्य भी गीताज्ञान को भली-भाँति समझ लें तो उस ज्ञान के विपरीत आचरण में प्रवृत्त हो ही नहीं सकते! अतएव अर्जुन को भगवान् इतना ही जोर देते हुए कहते हैं कि--"इसे भली प्रकार समझ लो, फिर जो करना चाहो करो".
हम सब की समस्या यही रही है, हम गीता वर्षों वर्षों से पढते आ रहे हैं, पर भली-भाँति समझने और तदनुरूप आचरण के लिए कभी भी हम सबों नें चेष्टा नहीं की है. माना सांख्ययोग (ज्ञानयोग), योग यानी निष्काम कर्मयोग, त्रिगुणमयी संसार की विकट लीला, जहाँ हमारी साधारण बुद्धि काम नहीं करती कि हम उन उपदेशों को समझ कर अपना सकें तो अर्जुन पर दया कर सबके हृदय की बात जानने वाले अन्तर्यामी भगवान् दयापूर्वक समस्त गीता के उपदेश का सार संक्षेप बतलाने के विचार के साथ ६४वें-६६वें श्लोक में यूँ कहते हैं--
सर्वगुह्यतमं भूतः श्रृणु मे परमं वचः।
इष्टोऽसि मे दृढमिति ततो वक्ष्यामि ते हितम्॥
मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे॥
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥अर्थात्, संपूर्ण गोपनीयों से अति गोपनीय मेरे परम रहस्ययुक्त वचन को तू फिर भी सुन. तू मेरा अतिशय प्रिय है, इससे यह परम हितकारक वचन मैं तुझसे कहूँगा. हे अर्जुन! तू मुझमें मनवाला हो, मेरा भक्त बन, मेरा पूजन करने वाला हो और मुझको प्रणाम कर. ऐसा करने से तू मुझे ही प्राप्त होगा, यह मैं तुझसे सत्य प्रतिज्ञा करता हूँ क्योंकि तू मेरा अत्यंत प्रिय है. संपूर्ण धर्मों को (संपूर्ण कर्तव्य कर्मों को) मुझमें त्यागकर तू केवल एक मुझ सर्वशक्तिमान, सर्वाधार परमेश्वर की ही शरण में आ जा. मैं तुझे संपूर्ण पापों से मुक्त कर दूँगा!
इससे सहज उपाय क्या हो सकता है कि हम भगवान् के हैं, सबकुछ भगवान् का है, इसीलिए अर्जुन को भगवान् सहज भाव लाने को कहते हैं-- तू मुझमें मनवाला हो, मेरा भक्त बन, मेरा पूजन करने वाला हो और मुझको ही प्रणाम कर! ऐसा करने से तू मुझे ही प्राप्त होगा! यह सहज योग तो परमात्मा के प्रति श्रद्धा-भक्ति रखने वाले मनुष्य अपना ही सकते हैं. ईश्वर और उनकी वाणी के प्रति बुद्धि फिरने के कारण जिनकी श्रद्धा उनमें नहीं है, उन्हे यह सिखाने बताने की जरूरत भी नहीं.
अतः ऐसे महत्त्वपूर्ण उपदेश के कौन अधिकारी हैं? कौन अधिकारी नहीं हैं? किसे यह सुनाया या बताया जाना चाहिए, किसे नहीं आदि के सम्बन्ध में बतलाते हुए भगवान् कहते हैं कि जो रहस्ययुक्त गीता- शास्त्र को भक्तों के बीच प्रचारित करेगा वह उन्हें ही प्राप्त होगा क्योंकि इससे बढकर प्रिय कार्य उनके लिए कुछ और नहीं है--
इदं ते नातपस्काय नाभक्ताय कदाचन।
न चाशुश्रूषवे वाच्यं न च मां योऽभ्यसूयति॥
य इमं परमं गुह्यं मद्भक्तेष्वभिधास्यति।
भक्तिं मयि परां कृत्वा मामेवैष्यत्यसंशयः॥
न च तस्मान्मनुष्येषु कश्चिन्मे प्रियकृत्तमः।
भविता न च मे तस्मादन्यः प्रियतरो भुवि॥अर्थात्, तुझे यह गीत रूप रहस्यमय उपदेश किसी भी काल में न तो तपरहित मनुष्य से कहना चाहिए, न भक्ति-रहित से और न बिना सुनने की इच्छा वाले से ही कहना चाहिए तथा जो मुझमें दोषदृष्टि रखता है, उससे तो कभी भी नहीं कहना चाहिए. जो पुरुष मुझमें परम प्रेम करके इस परम रहस्ययुक्त गीताशास्त्र को मेरे भक्तों में कहेगा, वह मुझको ही प्राप्त होगा- इसमें कोई संदेह नहीं है. उससे बढ़कर मेरा प्रिय कार्य करने वाला मनुष्यों में कोई भी नहीं है तथा पृथ्वीभर में उससे बढ़कर मेरा प्रिय दूसरा कोई भविष्य में होगा भी नहीं!
ऊँ जय श्रीराधेकृष्ण!
क्रमशः
--डॉ. सत्यनारायण पाण्डेय
इष्टोऽसि मे दृढमिति ततो वक्ष्यामि ते हितम्॥
मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे॥
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥
न चाशुश्रूषवे वाच्यं न च मां योऽभ्यसूयति॥
य इमं परमं गुह्यं मद्भक्तेष्वभिधास्यति।
भक्तिं मयि परां कृत्वा मामेवैष्यत्यसंशयः॥
न च तस्मान्मनुष्येषु कश्चिन्मे प्रियकृत्तमः।
भविता न च मे तस्मादन्यः प्रियतरो भुवि॥