अद्यापि अस्माकं गीताज्ञानयात्रामोक्षसन्यासयोगोनामष्टादशोऽध्ये प्रचलति!
प्रिय बन्धुगण!
कल हमलोगों ने उनचासवें श्लोक से पचपनवें श्लोक तक सांख्ययोग यानी ज्ञानयोग का स्वरूप वर्णन, इस साधना में रत ब्रह्मभाव को प्राप्त योगी के लक्षण तथा उस ब्रह्मभूत योगी को प्राप्त होने वाले फल को जाना कि उस परा भक्ति के द्वारा वह (ज्ञानयोगी) मुझ परमात्मा को, मैं जो हूँ और जितना हूँ ठीक वैसा का वैसा तत्त्व से जानलेता है; तथा उस भक्ति से मुझको (परमात्मा को) तत्त्व से जानकर तत्काल ही मुझ में ही प्रविष्ट हो जाता है!
इस प्रकार अर्जुन को सांख्ययोग यानी ज्ञानयोग का तत्त्व समझाकर, उसके लिए (अर्जुन के लिए) भक्ति प्रधान कर्मयोग की महिमा बतलाते हुए वैसा करने की आज्ञा देते हैं, न मानने पर क्या हानि होगी यह भी बतलाते हुए कहते हैं--
सर्वकर्माण्यपि सदा कुर्वाणो मद्व्यपाश्रयः।
मत्प्रसादादवाप्नोति शाश्वतं पदमव्ययम्॥
चेतसा सर्वकर्माणि मयि सन्न्यस्य मत्परः।
बुद्धियोगमुपाश्रित्य मच्चित्तः सततं भव॥
मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि।
अथ चेत्वमहाङ्कारान्न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि॥
अर्थात्, मेरे परायण हुआ कर्मयोगी तो संपूर्ण कर्मों को सदा करता हुआ भी मेरी कृपा से सनातन अविनाशी परमपद को प्राप्त हो जाता है. सब कर्मों को मन से मुझमें अर्पण करके तथा समबुद्धि रूप योग को अवलंबन करके मेरे परायण और निरंतर मुझमें चित्तवाला हो. उपर्युक्त प्रकार से मुझमें चित्तवाला होकर तू मेरी कृपा से समस्त संकटों को अनायास ही पार कर जाएगा और यदि अहंकार के कारण मेरे वचनों को न सुनेगा तो परमार्थ से भ्रष्ट हो जाएगा.
यहाँ तक हम सब ने ज्ञानयोग, भक्तियुक्त कर्मयोग की विधि को जाना, अब अपनी क्षमता और रूचि के अनुसार सहज ढंग से किसी एक विधा में प्रवृत्त होना आवश्यक है अन्यथा प्रकृति बलपूर्वक वह काम तो करा ही लेगी. अतः अर्जुन को सचेत करते हुए भगवान् आगे कहते हैं--
यदहङ्कारमाश्रित्य न योत्स्य इति मन्यसे।
मिथ्यैष व्यवसायस्ते प्रकृतिस्त्वां नियोक्ष्यति॥
स्वभावजेन कौन्तेय निबद्धः स्वेन कर्मणा।
कर्तुं नेच्छसि यन्मोहात्करिष्यस्यवशोऽपि तत्॥
अर्थात्, जो तू अहंकार का आश्रय लेकर यह मान रहा है कि 'मैं युद्ध नहीं करूँगा'तो तेरा यह निश्चय मिथ्या है, क्योंकि तेरा स्वभाव तुझे जबर्दस्ती युद्ध में लगा देगा. हे कुन्तीपुत्र! जिस कर्म को तू मोह के कारण करना नहीं चाहता, उसको भी अपने पूर्वकृत स्वाभाविक कर्म से बँधा हुआ परवश होकर करेगा.
अब प्रकृति यानी स्वभाव जिसे जड़ माना जाता है, वह किसी से बलपूर्वक काम कैसे करा सकती है? इस के उत्तर स्वरूप भगवान् कहते हैं कि हे अर्जुन! शरीर रूप यन्त्र में आरूढ हुए सम्पूर्ण प्राणियों को अन्तर्यामी परमेश्वर अपनी माया से उनके (प्राणियों के) कर्मों के अनुसार भ्रमण कराता हुआ सब प्राणियों के हृदय में स्थित है!
ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽजुर्न तिष्ठति।
भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारुढानि मायया॥
अब प्रश्न उठ सकता है कि फिर कर्मबंधन से छूटकर परम शान्तिलाभ के लिए मनुष्य को क्या करना चाहिए? यह स्पष्ट करते हुए इस प्रसंग का उपसंहार भगवान इस प्रकार करते हैं--
तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत।
तत्प्रसादात्परां शान्तिं स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम्॥
इति ते ज्ञानमाख्यातं गुह्याद्गुह्यतरं मया।
विमृश्यैतदशेषेण यथेच्छसि तथा कुरु॥
अर्थात्, हे भारत! तू सब प्रकार से उस परमेश्वर की ही शरण में जा. उस परमात्मा की कृपा से ही तू परम शांति को तथा सनातन परमधाम को प्राप्त होगा. इस प्रकार यह गोपनीय से भी अति गोपनीय ज्ञान मैंने तुमसे कह दिया. अब तू इस रहस्ययुक्त ज्ञान को पूर्णतया भली-भाँति विचार कर, जैसे चाहता है वैसे ही कर.
क्रमशः!
--डॉ. सत्यनारायण पाण्डेय
कल हमलोगों ने उनचासवें श्लोक से पचपनवें श्लोक तक सांख्ययोग यानी ज्ञानयोग का स्वरूप वर्णन, इस साधना में रत ब्रह्मभाव को प्राप्त योगी के लक्षण तथा उस ब्रह्मभूत योगी को प्राप्त होने वाले फल को जाना कि उस परा भक्ति के द्वारा वह (ज्ञानयोगी) मुझ परमात्मा को, मैं जो हूँ और जितना हूँ ठीक वैसा का वैसा तत्त्व से जानलेता है; तथा उस भक्ति से मुझको (परमात्मा को) तत्त्व से जानकर तत्काल ही मुझ में ही प्रविष्ट हो जाता है!
इस प्रकार अर्जुन को सांख्ययोग यानी ज्ञानयोग का तत्त्व समझाकर, उसके लिए (अर्जुन के लिए) भक्ति प्रधान कर्मयोग की महिमा बतलाते हुए वैसा करने की आज्ञा देते हैं, न मानने पर क्या हानि होगी यह भी बतलाते हुए कहते हैं--
सर्वकर्माण्यपि सदा कुर्वाणो मद्व्यपाश्रयः।
मत्प्रसादादवाप्नोति शाश्वतं पदमव्ययम्॥
चेतसा सर्वकर्माणि मयि सन्न्यस्य मत्परः।
बुद्धियोगमुपाश्रित्य मच्चित्तः सततं भव॥
मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि।
अथ चेत्वमहाङ्कारान्न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि॥
अर्थात्, मेरे परायण हुआ कर्मयोगी तो संपूर्ण कर्मों को सदा करता हुआ भी मेरी कृपा से सनातन अविनाशी परमपद को प्राप्त हो जाता है. सब कर्मों को मन से मुझमें अर्पण करके तथा समबुद्धि रूप योग को अवलंबन करके मेरे परायण और निरंतर मुझमें चित्तवाला हो. उपर्युक्त प्रकार से मुझमें चित्तवाला होकर तू मेरी कृपा से समस्त संकटों को अनायास ही पार कर जाएगा और यदि अहंकार के कारण मेरे वचनों को न सुनेगा तो परमार्थ से भ्रष्ट हो जाएगा.
यहाँ तक हम सब ने ज्ञानयोग, भक्तियुक्त कर्मयोग की विधि को जाना, अब अपनी क्षमता और रूचि के अनुसार सहज ढंग से किसी एक विधा में प्रवृत्त होना आवश्यक है अन्यथा प्रकृति बलपूर्वक वह काम तो करा ही लेगी. अतः अर्जुन को सचेत करते हुए भगवान् आगे कहते हैं--
यदहङ्कारमाश्रित्य न योत्स्य इति मन्यसे।
मिथ्यैष व्यवसायस्ते प्रकृतिस्त्वां नियोक्ष्यति॥
स्वभावजेन कौन्तेय निबद्धः स्वेन कर्मणा।
कर्तुं नेच्छसि यन्मोहात्करिष्यस्यवशोऽपि तत्॥
अर्थात्, जो तू अहंकार का आश्रय लेकर यह मान रहा है कि 'मैं युद्ध नहीं करूँगा'तो तेरा यह निश्चय मिथ्या है, क्योंकि तेरा स्वभाव तुझे जबर्दस्ती युद्ध में लगा देगा. हे कुन्तीपुत्र! जिस कर्म को तू मोह के कारण करना नहीं चाहता, उसको भी अपने पूर्वकृत स्वाभाविक कर्म से बँधा हुआ परवश होकर करेगा.
अब प्रकृति यानी स्वभाव जिसे जड़ माना जाता है, वह किसी से बलपूर्वक काम कैसे करा सकती है? इस के उत्तर स्वरूप भगवान् कहते हैं कि हे अर्जुन! शरीर रूप यन्त्र में आरूढ हुए सम्पूर्ण प्राणियों को अन्तर्यामी परमेश्वर अपनी माया से उनके (प्राणियों के) कर्मों के अनुसार भ्रमण कराता हुआ सब प्राणियों के हृदय में स्थित है!
ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽजुर्न तिष्ठति।
भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारुढानि मायया॥
अब प्रश्न उठ सकता है कि फिर कर्मबंधन से छूटकर परम शान्तिलाभ के लिए मनुष्य को क्या करना चाहिए? यह स्पष्ट करते हुए इस प्रसंग का उपसंहार भगवान इस प्रकार करते हैं--
तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत।
तत्प्रसादात्परां शान्तिं स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम्॥
इति ते ज्ञानमाख्यातं गुह्याद्गुह्यतरं मया।
विमृश्यैतदशेषेण यथेच्छसि तथा कुरु॥
अर्थात्, हे भारत! तू सब प्रकार से उस परमेश्वर की ही शरण में जा. उस परमात्मा की कृपा से ही तू परम शांति को तथा सनातन परमधाम को प्राप्त होगा. इस प्रकार यह गोपनीय से भी अति गोपनीय ज्ञान मैंने तुमसे कह दिया. अब तू इस रहस्ययुक्त ज्ञान को पूर्णतया भली-भाँति विचार कर, जैसे चाहता है वैसे ही कर.
क्रमशः!
--डॉ. सत्यनारायण पाण्डेय