Quantcast
Channel: अनुशील
Viewing all articles
Browse latest Browse all 670

सुप्रभातम्! जय भास्करः! ७७ :: सत्यनारायण पाण्डेय

$
0
0


ऊँ श्रीपरमात्मने नमः! सुप्रभातः सर्वेषां सज्जनानां ये गीताज्ञानयात्रायां दत्तचितः संलग्नाः सन्ति!
अद्यापि अस्माकं गीताज्ञानयात्रामोक्षसन्यासयोगोनामष्टादशोऽध्ये प्रचलति!

प्रिय बन्धुगण!
कल के विवेचन में हम सबों ने देखा कि तीन गुण (सत्व, रज, तम) ही प्रमुख रूप से सर्वत्र प्रभावी हैं; तभी तो ज्ञान हो, भक्ति हो, कर्म हो, दान हो, धृति हो, सुख हो-- सभी सात्विकी, राजस और तामस भेद से तीन प्रकार के कहे गए और राजस और तामस का प्रयत्नपूर्वक त्याग कर सात्विक को धारण करने की प्रेरणा दी गई.

इसी अध्याय के चालीसवें श्लोक में भगवान् ने तो यह पूर्णतः स्पष्ट कर ही दिया कि ऐसा कोई भी तत्व नही है, जो प्रकृति से उत्पन्न इन तीन गुणो से रहित हो! चाहे पृथ्वी पर, आकाश में, देवताओं में या इसके सिवा और कहीं भी ये तीनों गुण सर्वत्र प्रभावी हैं. अब बुद्धिमत्ता से राजस और तामस से अलग हो सात्विक को अपनाना हमारा कर्तव्य हो जाता है. भगवान् ने द्वितीय अध्याय के पैंतालीसवे श्लोक में भी कहा है--
त्र्यैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन।
निर्द्वन्दो नित्यसत्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्।।
अर्थात्, ये वेद भी तीन गुणों के समस्त कार्यरूप समस्त भोगों एवं उसके साधनो का प्रतिपादन करने वाले हैं; इस लिए तू उन भोगों और साधनों के प्रति आसक्ति रहित हो, हर्ष-शोकादि द्वन्द्वों से रहित हो परमात्मा में स्थित योगक्षेम को न चाहने वाला और स्वाधीन अन्तःकरन वाला बनो.

अब हम सब यह स्पष्ट रूप से जान चुके हैं कि त्रिगुणी व्यवस्था से परे कुछ भी नहीं है; साथ ही यदि हम भगवद्बुद्धि के साथ सावधानी बरतें तो राजस और तामस से बचते हुए सात्विकता को अपना कर परम श्रेय मोक्ष तक की यात्रा निर्बाध करते हुए अन्ततः इससे भी मुक्त हो परमात्मा (मोक्ष) को प्राप्त हो सकते हैं! हम चाहे अपनी मर्जी से यहाँ हों, कर्मफल के कारण यहाँ हों, या परमात्मा ने अपनी लीला का क्षुद्र आस्पद बनाकर हमें इस त्रिगुणमयसंसार में भेजा हो-- जो भी मान लें, पर इतना तो हमें पता है कि चौरासी लाख योनियों में श्रेष्ठ योनि मनुष्य योनि में हम सब हैं, तो तुलसी बाबा के शब्दों में--"साधनधाम मोक्षकर द्वारा"के अनुसार हमें प्रयत्नपूर्वक मोक्षमार्ग का अनुसरण करना ही चाहिए. हम संसार में रहें, हमारी बाध्यता हो सकती है, पर हम संसार को अपने अन्दर घुसने से प्रयत्नपूर्वक गीता के बताए मार्ग पर चल कर रोकने में सफल तो हो ही सकते हैं. हम सब को पता है-- नाव नदी के पानी में ही रहती और चलती है, पर पानी को नाव में नहीं प्रविष्ट होना चाहिए. पानी जैसे ही नाव में भरेगा नाव नदी में डूब जायेगी. ठीक उसी तरह संसार में रहना हमारी मजबूरी हो सकती है, रहे, पर हम में संसार प्रवेश न करने पाये नहीं तो नाव की तरह हम भी डूब जायेंगे! जल में कमल की तरह ही हमें संसार में स्थित रहना चाहिए. जैसे कमल जल में तो जरूर रहता है पर बराबर जल से ऊपर अपनी स्थिति बनाये रखता है, हमें संसार में रहते हुए निर्लिप्त भाव से आसक्ति रहित हो कर्तव्य कर्मों का निष्कामभाव से सम्पादन करते हुए मोक्ष मार्ग का अनुसरण करते हुए परम लक्ष्य को पा लेना है!

हाँ, यह सही है कि मनुष्य समस्त कर्म सुख की प्राप्ति के लिए ही करता है जो तीनों गुणों के प्रभाव में सात्विक, राजस और तामस तीन प्रकार का ही होता है (इसका विशद वर्णन ऊपर छत्तीसवें, सैंतीसवें, अड़तीसवें और उनचालीसवें श्लोक में किया जा चुका है). उस क्रम में हम सबों ने यह जाना है कि यद्यपि सात्विक सुख के लिए किया गया प्रयत्न आरम्भ में भले कठिन और दुखदायी या विष तुल्य लगे पर वह परिणाम में अमृत तुल्य ही होता है. राजस सुख भोग काल में इन्द्रियों के सहयोग से भले उस समय सुखद अमृत तुल्य लगे पर उसका परिणाम तो विष तुल्य ही होता है और तामसी सुख तो भोग काल में और परिणाम दोनों मे ही निद्रा, आलस्य और प्रमाद से आरम्भ ही होता है, अतः वह तो कल्याणकारी हो ही नहीं सकता. इन बातों का हमें बार बार स्मरण करते हुए दृढतापूर्वक मोक्ष मार्ग में बढते रहना है. 

इस वृहद् विवेचना के बाद अब आज के विषय को आगे बढाते हैं--
असक्तबुद्धिः सर्वत्र जितात्मा विगतस्पृहः।
नैष्कर्म्यसिद्धिं परमां सन्न्यासेनाधिगच्छति॥
सिद्धिं प्राप्तो यथा ब्रह्म तथाप्नोति निबोध मे।
समासेनैव कौन्तेय निष्ठा ज्ञानस्य या परा॥
अर्थात्, सर्वत्र आसक्तिरहित बुद्धिवाला, स्पृहारहित और जीते हुए अंतःकरण वाला पुरुष सांख्ययोग के द्वारा उस परम नैष्कर्म्यसिद्धि को प्राप्त होता है जो कि ज्ञान योग की परानिष्ठा है, उस नैष्कर्म्य सिद्धि को जिस प्रकार से प्राप्त होकर मनुष्य ब्रह्म को प्राप्त होता है, उसे हे कुन्तीपुत्र! तू संक्षेप में ही मुझसे समझ!

आगे भगवान् अर्जुन को और अर्जुन के माध्यम से हमें भी सात्विक कर्मों द्वारा ईश्वर प्राप्ति के मार्ग का दिग्दर्शण कराते हुए कहते हैं--
बुद्ध्‌या विशुद्धया युक्तो धृत्यात्मानं नियम्य च।
शब्दादीन्विषयांस्त्यक्त्वा रागद्वेषौ व्युदस्य च॥
विविक्तसेवी लघ्वाशी यतवाक्कायमानस।
ध्यानयोगपरो नित्यं वैराग्यं समुपाश्रितः॥
अहङकारं बलं दर्पं कामं क्रोधं परिग्रहम्‌।
विमुच्य निर्ममः शान्तो ब्रह्मभूयाय कल्पते॥
ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति।
समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम्‌॥
भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्त्वतः।
ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम्‌॥
अर्थात्, विशुद्ध बुद्धि से युक्त तथा हलका, सात्त्विक और नियमित भोजन करने वाला, शब्दादि विषयों का त्याग करके एकांत और शुद्ध देश का सेवन करने वाला, सात्त्विक धारण शक्ति के द्वारा अंतःकरण और इंद्रियों का संयम करके मन, वाणी और शरीर को वश में कर लेने वाला, राग-द्वेष को सर्वथा नष्ट करके भलीभाँति दृढ़ वैराग्य का आश्रय लेने वाला तथा अहंकार, बल, घमंड, काम, क्रोध और परिग्रह का त्याग करके निरंतर ध्यान योग के परायण रहने वाला, ममतारहित और शांतियुक्त पुरुष सच्चिदानन्दघन ब्रह्म में अभिन्नभाव से स्थित होने का पात्र होता है. फिर वह सच्चिदानन्दघन ब्रह्म में एकीभाव से स्थित, प्रसन्न मनवाला योगी न तो किसी के लिए शोक करता है और न किसी की आकांक्षा ही करता है. ऐसा समस्त प्राणियों में समभाव वाला योगी मेरी पराभक्ति को (जो तत्त्व ज्ञान की पराकाष्ठा है तथा जिसको प्राप्त होकर और कुछ जानना बाकी नहीं रहता वही यहाँ पराभक्ति, ज्ञान की परानिष्ठा, परम नैष्कर्म्यसिद्धि और परमसिद्धि इत्यादि नामों से कही गई है) प्राप्त हो जाता है. उस पराभक्ति के द्वारा वह मुझ परमात्मा को, मैं जो हूँ और जितना हूँ, ठीक वैसा-का-वैसा तत्त्व से जान लेता है तथा उस भक्ति से मुझको तत्त्व से जानकर तत्काल ही मुझमें प्रविष्ट हो जाता है.

आगे हम भक्ति सहित कर्मयोग की महत्ता देखेंगे!

जय श्रीराधेकृष्ण!
क्रमशः

--डॉ. सत्यनारायण पाण्डेय 


Viewing all articles
Browse latest Browse all 670

Trending Articles



<script src="https://jsc.adskeeper.com/r/s/rssing.com.1596347.js" async> </script>