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सुप्रभातम्! जय भास्करः! ७५ :: सत्यनारायण पाण्डेय

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ऊँ श्रीपरमात्मने नमः! सुप्रभातः सर्वेषां सज्जनानां ये गीताज्ञानयात्रायां दत्तचितः संलग्नाः सन्ति! 
अद्यापि अस्माकं गीताज्ञानयात्रामोक्षसन्यासयोगोनामष्टादशोऽध्ये
प्रचलति!

प्रिय बन्धुगण!
इस अध्याय के सतरहवें श्लोक पर हम ध्यान दें जिसमें भगवान कहते हैं--"जिस पुरुष के अन्तःकरण में 'मैं कर्ता हूँ'ऐसा भाव नहीं है तथा जिसकी बुद्धि सांसारिक पदार्थों में और कर्मों मे लिप्त नहीं होती, वह पुरूष इन सब लोगों को मारकर भी वास्तव मे न तो मारने वाला है और न उसके कारण पाप से बँधता ही है!
यहां ध्यान देने की बात है कि हम कर्ता हैं ही नहीं, हम तो एक उपकरण मात्र हैं, संचालक परमात्मा हैं! हम अहंकार के कारण ही अपने को कर्ता मानकर सुख दुख के भागी बनते हैं. तीसरे अध्याय के सत्ताइसवें श्लोक में भी यह स्पष्ट किया गया था कि सारे कर्म प्रकृति एवं तीन गुणों (सत्व, रज, तम) के प्रभाव से होते रहते हैं, पर अहंकार वश मूढ प्राणी अपने को कर्ता मान बैठता है और आगे अठ्ठाइसवें श्लोक में यही स्पष्ट किया गया है--

"तत्ववित गुणा गुणेषु वर्तन्ते इति मत्वा न सज्जते।" 
अर्थात, तात्विक दृष्टि रखने वाला यह भली प्रकार समझता है कि गुण ही गुण में बरत रहे हैं, मैं इसमे एक उपकरण की तरह हूं, ऐसा समझते हुए वह बंन्धन में नहीं पड़ता! फिर इसी अध्याय के चौदहवें श्लोक में किसी भी कार्य के सम्पादन में पांच हेतुओं की चर्चा की गई है--अधिष्ठान, कर्ता, भिन्न भिन्न करण यानी साधन, नाना प्रकार की चेष्टाएँ और पाँचवाँ दैव कहा गया.

अतः मनुष्य मन, वाणी और शरीर से जो भी कर्म करता है, उसमें ये पाँचों कारण होते हैं, पर मनुष्य अज्ञानता के कारण शुद्ध स्वरूप आत्मा को कर्ता समझने की भूल कर बैठता है. आत्मा शुद्ध निर्विकार है और अकर्ता है यह भाव हमें अपने में लाना चाहिए!

भगवान् इन्हीं भावों की परिपुष्टि के लिए ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय--तीन प्रकार की कर्म-प्रेरणा तथा कर्ता, करण और क्रिया इन तीन प्रकार के कर्म-संग्रह की बात इसी अध्याय के अठारहवें श्लोक में करते हैं एवं सांख्ययोग के सिद्धान्तानुसार कर्म-प्रेरणा और कर्म-संग्रह की बात बताते हैं. आगे भगवान तत्व ज्ञान में सहायक सात्विक भाव को ग्रहण करने की प्रेरणा के लिए और विरोधी भाव-- राजस, तामस को त्यागने के लिए 'कर्म-प्रेरणा'और 'कर्म-संग्रह'का प्रतिपादन करते हैं. पुनः ज्ञान, कर्म और कर्ता के सात्विक, राजस और तामस त्रिविध भेद क्रमशः आगे के प्रस्तावना सहित उन्नीसवें श्लोक से अठ्ठाइसवें श्लोक तक में प्रभु यूँ करते हैं--

ज्ञानं कर्म च कर्ता च त्रिधैव गुणभेदतः।
प्रोच्यते गुणसङ्ख्याने यथावच्छ्णु तान्यपि॥
सर्वभूतेषु येनैकं भावमव्ययमीक्षते।
अविभक्तं विभक्तेषु तज्ज्ञानं विद्धि सात्त्विकम्॥
पृथक्त्वेन तु यज्ज्ञानं नानाभावान्पृथग्विधान्‌।
वेत्ति सर्वेषु भूतेषु तज्ज्ञानं विद्धि राजसम्‌॥
यत्तु कृत्स्नवदेकस्मिन्कार्ये सक्तमहैतुकम्‌।
अतत्त्वार्थवदल्पंच तत्तामसमुदाहृतम्‌॥
यत्तु कृत्स्नवदेकस्मिन्कार्ये सक्तमहैतुकम्‌।
अतत्त्वार्थवदल्पंच तत्तामसमुदाहृतम्‌॥
यत्तु कामेप्सुना कर्म साहङ्‍कारेण वा पुनः।
क्रियते बहुलायासं तद्राजसमुदाहृतम्‌॥
अनुबन्धं क्षयं हिंसामनवेक्ष्य च पौरुषम्‌।
मोहादारभ्यते कर्म यत्तत्तामसमुच्यते॥
मुक्तसङ्‍गोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वितः।
सिद्धयसिद्धयोर्निर्विकारः कर्ता सात्त्विक उच्यते॥
रागी कर्मफलप्रेप्सुर्लुब्धो हिंसात्मकोऽशुचिः।
हर्षशोकान्वितः कर्ता राजसः परिकीर्तितः॥
आयुक्तः प्राकृतः स्तब्धः शठोनैष्कृतिकोऽलसः।
विषादी दीर्घसूत्री च कर्ता तामस उच्यते॥
अर्थात्, गुणों की संख्या करने वाले शास्त्र में ज्ञान और कर्म तथा कर्ता गुणों के तीन-तीन प्रकार के भेद कहे गए हैं. जिस ज्ञान से मनुष्य पृथक-पृथक सब भूतों में एक अविनाशी परमात्मभाव को विभागरहित समभाव से स्थित देखता है, वह ज्ञान सात्त्विक है किन्तु जिस ज्ञान के द्वारा मनुष्य सम्पूर्ण भूतों में भिन्न-भिन्न प्रकार के नाना भावों को अलग-अलग जानता है, वह ज्ञान राजस है. जो ज्ञान एक कार्यरूप शरीर में ही सम्पूर्ण के सदृश आसक्त है तथा जो बिना युक्तिवाला, तात्त्विक अर्थ से रहित और तुच्छ है- वह तामस कहा गया है. जो कर्म शास्त्रविधि से नियत किया हुआ और कर्तापन के अभिमान से रहित हो तथा फल न चाहने वाले पुरुष द्वारा बिना राग-द्वेष के किया गया हो- वह सात्त्विक कहा जाता है और जो कर्म बहुत परिश्रम से युक्त होता है तथा भोगों को चाहने वाले पुरुष द्वारा किया जाता है, वह कर्म राजस कहा गया है. जो कर्म परिणाम, हानि, हिंसा और सामर्थ्य को न विचारकर केवल अज्ञान से आरंभ किया जाता है, वह तामस कहा जाता है. जो कर्ता संगरहित, अहंकार के वचन न बोलने वाला, धैर्य और उत्साह से युक्त तथा कार्य के सिद्ध होने और न होने में हर्ष-शोकादि विकारों से रहित है- वह सात्त्विक कहा जाता है! जो कर्ता आसक्ति से युक्त कर्मों के फल को चाहने वाला और लोभी है तथा दूसरों को कष्ट देने के स्वभाववाला, अशुद्धाचारी और हर्ष-शोक से लिप्त है वह राजस कहा गया है. जो कर्ता अयुक्त, शिक्षा से रहित घमंडी, धूर्त और दूसरों की जीविका का नाश करने वाला तथा शोक करने वाला, आलसी और दीर्घसूत्री है वह तामस कहा जाता है!

यहां तक हमने देखा कि तत्वज्ञान में सहायक सात्विक भाव को ग्रहण करने के लिए और उसके विरोधी राजस एवं तामस भाव को छोड़ने के लिए कर्म-प्रेरणा और कर्म-संग्रह में ज्ञान, कर्म और कर्ता के तीन तीन भेद (सात्वीकी, राजसी और तामसी) को बतलाया ताकि हम सब ज्ञान, कर्म, कर्ता को स्वरूपगत अपनाते समय राजस और तामस से बचते हुए सात्विक भाव को अपना सकें! अब आगे बुद्धि और धृति भी सात्विक, राजसी और तामसी-- भेद से तीन तीन प्रकार की कही गई है, जिसकी प्रस्तावना भगवान् उनतीसवें श्लोक में करते हुए क्रमशः पैंतीसवें श्लोक तक बुद्धि एवं धृति के भी सात्विक, राजस और तामस रूप का वर्णन इस प्रकार करते हैं--

बुद्धेर्भेदं धृतेश्चैव गुणतस्त्रिविधं श्रृणु।
प्रोच्यमानमशेषेण पृथक्त्वेन धनंजय॥
प्रवत्तिं च निवृत्तिं च कार्याकार्ये भयाभये।
बन्धं मोक्षं च या वेति बुद्धिः सा पार्थ सात्त्विकी॥
यया धर्ममधर्मं च कार्यं चाकार्यमेव च।
अयथावत्प्रजानाति बुद्धिः सा पार्थ राजसी॥
अधर्मं धर्ममिति या मन्यते तमसावृता।
सर्वार्थान्विपरीतांश्च बुद्धिः सा पार्थ तामसी॥
धृत्या यया धारयते मनःप्राणेन्द्रियक्रियाः।
योगेनाव्यभिचारिण्या धृतिः सा पार्थ सात्त्विकी॥
यया तु धर्मकामार्थान्धत्या धारयतेऽर्जुन।
प्रसङ्‍गेन फलाकाङ्क्षी धृतिः सा पार्थ राजसी॥
यया स्वप्नं भयं शोकं विषादं मदमेव च।
न विमुञ्चति दुर्मेधा धृतिः सा पार्थ तामसी॥
अर्थात्, हे धनंजय ! अब तू बुद्धि का और धृति का भी गुणों के अनुसार तीन प्रकार का भेद मेरे द्वारा सम्पूर्णता से विभागपूर्वक सुन--
जो बुद्धि प्रवृत्तिमार्ग (गृहस्थ में रहते हुए फल और आसक्ति को त्यागकर भगवदर्पण बुद्धि से केवल लोकशिक्षा के लिए राजा जनक की भाँति बरतने का नाम 'प्रवृत्तिमार्ग'है) और निवृत्ति मार्ग को (देहाभिमान को त्यागकर केवल सच्चिदानंदघन परमात्मा में एकीभाव स्थित हुए श्री शुकदेवजी और सनकादिकों की भाँति संसार से उपराम होकर विचरने का नाम 'निवृत्तिमार्ग'है), कर्तव्य और अकर्तव्य को, भय और अभय को तथा बंधन और मोक्ष को यथार्थ जानती है- वह बुद्धि सात्त्विकी है. मनुष्य जिस बुद्धि के द्वारा धर्म और अधर्म को तथा कर्तव्य और अकर्तव्य को भी यथार्थ नहीं जानता, वह बुद्धि राजसी है. जो तमोगुण से घिरी हुई बुद्धि अधर्म को भी 'यह धर्म है'ऐसा मान लेती है तथा इसी प्रकार अन्य संपूर्ण पदार्थों को भी विपरीत मान लेती है, वह बुद्धि तामसी है. जिस अव्यभिचारिणी धारण शक्ति (भगवद्विषय के सिवाय अन्य सांसारिक विषयों को धारण करना ही व्यभिचार दोष है) से मनुष्य ध्यान योग के द्वारा मन, प्राण और इंद्रियों की क्रियाओं को धारण करता है, वह धृति सात्त्विकी है परंतु फल की इच्छावाला मनुष्य जिस धारण शक्ति के द्वारा अत्यंत आसक्ति से धर्म, अर्थ और कामों को धारण करता है, वह धारण शक्ति राजसी है. दुष्ट बुद्धिवाला मनुष्य जिस धारण शक्ति के द्वारा निद्रा, भय, चिंता और दु:ख को तथा उन्मत्तता को धारण किए रहता है- वह धारण शक्ति तामसी है.

प्रिय बन्धुओं मैंने बार बार आग्रह किया है, विषय को समझने और धारण करने के लिए तो थोड़ा सतर्क रहना ही होगा.

जय श्रीकृष्ण!

क्रमशः!

--डॉ. सत्यनारायण पाण्डेय


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