ऊँ श्रीपरमात्मने नमः! सुप्रभातः सर्वेषां सज्जनानां ये गीताज्ञानयात्रायां दत्तचितः संलग्नाः सन्ति! अद्यापि अस्माकं गीताज्ञानयात्रा अष्टादशोऽध्यायैव भविष्यति!
प्रिय बन्धुगण!इस अध्याय की यात्रा के आरम्भ में ही भूमिका के क्रम में यह संकेत दिया है कि यह अठारहवां अध्याय समस्त अध्यायों का सार रूप है, अतः हमें समझने के लिए पूरी सतर्कता भी रखनी होगी!गीताज्ञानयात्रा के आरम्भिक यात्राक्रम में भी यह बार बार दुहराया गया है कि श्रीमद्भगवद्गीता मुख्य रूप से "ज्ञानसंवलित कर्मयोगशास्र"ही है. यहां अठारहवें अध्याय में भी कर्मयोग की ही प्रतिष्ठा है. हमें इस ज्ञान यात्रा में थोड़ी सावधानी तो रखनी ही चाहिए.
कल दस श्लोक तक की यात्रा हुयी थी. हमने देखा दसवें श्लोक में भगवान् सच्चे त्यागी का लक्षण बतलाते हुए कहा है कि--जो मनुष्य अकुशल कर्म से द्वेष नहीं करता और कुशल कर्म में आसक्त नहीं होता, परन्तु यह मुझे ही सम्पदित करना है, इसलिए करना ही है, इस भाव से कर्म करने वाला ही सतोगुणी, संशयरहित बुद्धिमान् और सच्चा त्यागी है. इस तरह यहां भी स्पष्ट किया गया कि सात्विक त्यागी यानी निष्काम भाव से कर्तव्य कर्म का अनुष्ठान करने वाला कर्मयोगी ही सच्चा त्यागी है, कर्म का ही कोई त्याग कर दे तो वह त्यागी नही कहला सकता.
अब यहां एक स्वाभाविक प्रश्न उठ सकता है कि निषिद्ध और काम्य कर्मों के त्याग की भाँति अन्य समस्त कर्मों का स्वरूप से त्याग करने वाले को भी तो त्यागी कहा जा सकता है, फिर निष्काम भाव से कर्म करने वाला ही सच्चा त्यागी होता है, ऐसा क्यों कहा गया?इसी को स्पष्ट करते हुए ग्यारहवें श्लोक में कहा गया कि शरीरधारी के लिए सभी कर्मों त्याग सम्भव ही नही--
न हि देहभृता शक्यं त्यक्तुं कर्माण्यशेषतः।
यस्तु कर्मफलत्यागी स त्यागीत्यभिधीयते॥अर्थात्, क्योंकि शरीरधारी किसी भी मनुष्य द्वारा सम्पूर्णता से सब कर्मों का त्याग किया जाना संभव ही नहीं है, इसलिए जो कर्मफल त्यागी है, वही त्यागी है- यह कहा जाता है.
अब प्रश्न उठ सकता है कि जब सभी किए गए शुभाशुभ कर्मों के फल भुगते बिना केवल कर्म फल के त्याग से मनुष्य त्यागी यानी "कर्मबन्धन रहित"कैसे हो सकता है? इस शंका की निवृत्ति बारहवें श्लोक में की गई है--
अनिष्टमिष्टं मिश्रं च त्रिविधं कर्मणः फलम्।
भवत्यत्यागिनां प्रेत्य न तु सन्न्यासिनां क्वचित्॥
अर्थात्, कर्मफल का त्याग न करने वाले मनुष्यों के कर्मों का तो अच्छा, बुरा और मिला हुआ- ऐसे तीन प्रकार का फल मरने के पश्चात अवश्य होता है, किन्तु कर्मफल का त्याग कर देने वाले मनुष्यों के कर्मों का फल किसी काल में भी नहीं होता.
यहां यह स्पष्ट हो गया कि विहित शास्त्र सम्मत कर्मों का लगाव रहित हो सम्पादन के साथ कर्मफल का त्याग कर देने वाले कर्म बन्धन में नहीं पड़ते और कर्मो का फल भी किसी काल में नहीं होता, पर कर्म फल का त्याग न करने वाला अच्छा, बुरा और मिला हुआ फल मरने के बाद अन्य जन्म में भी भुगतता ही है!
अब आगे संन्यास यानी सांख्ययोग के तत्व को समझाने के लिए सांख्य-सिद्धान्त के अनुसार कर्मों की सिद्धि में पांच हेतु की चर्चा करते हुए बताया गया है--
पञ्चैतानि महाबाहो कारणानि निबोध मे।
साङ्ख्ये कृतान्ते प्रोक्तानि सिद्धये सर्वकर्मणाम्॥
अधिष्ठानं तथा कर्ता करणं च पृथग्विधम्।
विविधाश्च पृथक्चेष्टा दैवं चैवात्र पञ्चमम्॥
शरीरवाङ्मनोभिर्यत्कर्म प्रारभते नरः।
न्याय्यं वा विपरीतं वा पञ्चैते तस्य हेतवः॥
अर्थात्, हे महाबाहो! सम्पूर्ण कर्मों की सिद्धि के ये पाँच हेतु कर्मों का अंत करने के लिए उपाय बतलाने वाले सांख्य-शास्त्र में कहे गए हैं, उनको तू मुझसे भलीभाँति जान. कर्मों की सिद्धि में अधिष्ठान (जिसके आश्रय कर्म किए जाएँ) और कर्ता तथा भिन्न-भिन्न प्रकार के करण (जिन-जिन इंद्रियादिकों और साधनों द्वारा कर्म किए जाते हैं) एवं नाना प्रकार की अलग-अलग चेष्टाएँ और वैसे ही पाँचवाँ हेतु दैव (पूर्वकृत शुभाशुभ कर्मों के संस्कार) है. मनुष्य मन, वाणी और शरीर से शास्त्रानुकूल अथवा विपरीत जो कुछ भी कर्म करता है- उसके ये पाँचों कारण हैं.
इस प्रकार सांख्ययोग के सिद्धान्तानुसार कर्मों की सिद्धि के लिए पांच कारणों का संकेत कर यह बतलाया गया है कि वास्तव में शरीर में रहते हुए भी आत्मा का कर्मों से कोई संबंध नहीं होता, आत्मा सर्वथा शुद्ध निर्विकार और अकर्ता है. अतः सोलहवें श्लोक में आत्मा को कर्ता मानने वाले को मलिन बुद्धिवाला और अज्ञानी बतलाते हुए भगवान् कहते हैं--
तत्रैवं सति कर्तारमात्मानं केवलं तु यः।
पश्यत्यकृतबुद्धित्वान्न स पश्यति दुर्मतिः॥अर्थात्, ऐसा होने पर भी जो मनुष्य अशुद्ध बुद्धि होने के कारण कर्मों के होने में आत्मा को कर्ता समझता है, वह मलीन बुद्धि वाला अज्ञानी यथार्थ नहीं समझता.
ठीक इसी प्रकार आत्मा सर्वथा शुद्ध, निर्विकार और अकर्ता है, ऐसा समझने वाले की प्रशंसा करते हुए सतरहवें श्लोक में भगवान् कहते हैं--
यस्य नाहङ्कृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते।
हत्वापि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते॥अर्थात्, जिस पुरुष के अन्तःकरण में 'मैं कर्ता हूँ'ऐसा भाव नहीं है तथा जिसकी बुद्धि सांसारिक पदार्थों में और कर्मों में लिप्त नहीं होती, वह पुरुष इन सब लोकों को मारकर भी वास्तव में न तो मरता है और न पाप से बँधता है।
जैसे अग्नि, वायु और जल द्वारा प्रारब्धवश किसी प्राणी की हिंसा होती है तो वह वास्तव में हिंसा नहीं है, वैसे ही जिस पुरुष का देह में अभिमान नहीं है और स्वार्थरहित केवल संसार के हित के लिए ही जिसकी सम्पूर्ण क्रियाएँ होती हैं, उस पुरुष के शरीर और इन्द्रियों द्वारा यदि किसी प्राणी की हिंसा होती हुई लोकदृष्टि में देखी जाए, तो भी वह वास्तव में हिंसा नहीं है क्योंकि आसक्ति, स्वार्थ और अहंकार के न होने से किसी प्राणी की हिंसा हो ही नहीं सकती तथा बिना कर्तृत्वाभिमान के किया हुआ कर्म वास्तव में अकर्म ही है, इसलिए वह पुरुष पाप से नहीं बँधता!
इस प्रकार संन्यास यानी ज्ञानयोग का तत्व समझाने के लिए आत्मा के अकर्तापन का प्रतिपादन कर अब उसके अनुसार कर्म के अंग-प्रत्यंगों को भलीभाँति समझने के लिए कर्म-प्रेरणा और कर्मसंग्रह का प्रतिपादन अठारहवें श्लोक में करते हैं--
ज्ञानं ज्ञेयं परिज्ञाता त्रिविधा कर्मचोदना।
करणं कर्म कर्तेति त्रिविधः कर्मसङ्ग्रहः॥
अर्थात्, ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय- ये तीन प्रकार की कर्म-प्रेरणा हैं और कर्ता, करण तथा क्रिया, ये तीन प्रकार का कर्म-संग्रह है.
ऊँ जय श्रीराधेकृष्ण!
क्रमशः!
--डॉ. सत्यनारायण पाण्डेय
ऊँ श्रीपरमात्मने नमः! सुप्रभातः सर्वेषां सज्जनानां ये गीताज्ञानयात्रायां दत्तचितः संलग्नाः सन्ति! अद्यापि अस्माकं गीताज्ञानयात्रा अष्टादशोऽध्यायैव भविष्यति!
न हि देहभृता शक्यं त्यक्तुं कर्माण्यशेषतः।
यस्तु कर्मफलत्यागी स त्यागीत्यभिधीयते॥
भवत्यत्यागिनां प्रेत्य न तु सन्न्यासिनां क्वचित्॥
अर्थात्, कर्मफल का त्याग न करने वाले मनुष्यों के कर्मों का तो अच्छा, बुरा और मिला हुआ- ऐसे तीन प्रकार का फल मरने के पश्चात अवश्य होता है, किन्तु कर्मफल का त्याग कर देने वाले मनुष्यों के कर्मों का फल किसी काल में भी नहीं होता.
पञ्चैतानि महाबाहो कारणानि निबोध मे।
साङ्ख्ये कृतान्ते प्रोक्तानि सिद्धये सर्वकर्मणाम्॥
अधिष्ठानं तथा कर्ता करणं च पृथग्विधम्।
विविधाश्च पृथक्चेष्टा दैवं चैवात्र पञ्चमम्॥
शरीरवाङ्मनोभिर्यत्कर्म प्रारभते नरः।
न्याय्यं वा विपरीतं वा पञ्चैते तस्य हेतवः॥
अर्थात्, हे महाबाहो! सम्पूर्ण कर्मों की सिद्धि के ये पाँच हेतु कर्मों का अंत करने के लिए उपाय बतलाने वाले सांख्य-शास्त्र में कहे गए हैं, उनको तू मुझसे भलीभाँति जान. कर्मों की सिद्धि में अधिष्ठान (जिसके आश्रय कर्म किए जाएँ) और कर्ता तथा भिन्न-भिन्न प्रकार के करण (जिन-जिन इंद्रियादिकों और साधनों द्वारा कर्म किए जाते हैं) एवं नाना प्रकार की अलग-अलग चेष्टाएँ और वैसे ही पाँचवाँ हेतु दैव (पूर्वकृत शुभाशुभ कर्मों के संस्कार) है. मनुष्य मन, वाणी और शरीर से शास्त्रानुकूल अथवा विपरीत जो कुछ भी कर्म करता है- उसके ये पाँचों कारण हैं.
तत्रैवं सति कर्तारमात्मानं केवलं तु यः।
पश्यत्यकृतबुद्धित्वान्न स पश्यति दुर्मतिः॥
यस्य नाहङ्कृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते।
हत्वापि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते॥
जैसे अग्नि, वायु और जल द्वारा प्रारब्धवश किसी प्राणी की हिंसा होती है तो वह वास्तव में हिंसा नहीं है, वैसे ही जिस पुरुष का देह में अभिमान नहीं है और स्वार्थरहित केवल संसार के हित के लिए ही जिसकी सम्पूर्ण क्रियाएँ होती हैं, उस पुरुष के शरीर और इन्द्रियों द्वारा यदि किसी प्राणी की हिंसा होती हुई लोकदृष्टि में देखी जाए, तो भी वह वास्तव में हिंसा नहीं है क्योंकि आसक्ति, स्वार्थ और अहंकार के न होने से किसी प्राणी की हिंसा हो ही नहीं सकती तथा बिना कर्तृत्वाभिमान के किया हुआ कर्म वास्तव में अकर्म ही है, इसलिए वह पुरुष पाप से नहीं बँधता!
ज्ञानं ज्ञेयं परिज्ञाता त्रिविधा कर्मचोदना।
करणं कर्म कर्तेति त्रिविधः कर्मसङ्ग्रहः॥
अर्थात्, ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय- ये तीन प्रकार की कर्म-प्रेरणा हैं और कर्ता, करण तथा क्रिया, ये तीन प्रकार का कर्म-संग्रह है.
--डॉ. सत्यनारायण पाण्डेय