ऊँ श्रीपरमात्मने नमः! सुप्रभातः सर्वेषां सज्जनानां ये गीताज्ञानयात्रायां दत्तचितः संलग्नाः सन्ति! अद्यापि श्रद्धात्रययोगोनाम सप्तदशाध्याये एव यात्रा भविष्यति!
प्रिय बन्धुगण!
कल इस अध्याय के आठवें श्लोक में सात्विक आहार कैसा होता है, यह बतलाया गया था, जिसे सात्विक बुद्धि के लिए सबको ग्रहण करना चाहिए ताकि सात्विक श्रद्धा का संचार हृदय, मन, बुद्धि में हो और हम सत्कर्म करते हुए मुक्तिमार्ग पर अग्रसर हो सकें!आदिम काल से सत्संग में, लोक व्यवहार में सुनते आए हैं--"जैसा खाओगे अन्न, वैसा होगा मन", अतः बुद्धिमान पुरूष आरम्भ से ही खानपान के प्रति सजग रहे हैं.
आगे के दो श्लोकों में कल्याण चाहने वाले सात्विक मनुष्यों के लिए त्याग करने योग्य राजसी और तामसी आहार का भी वर्णन इस प्रकार किया गया है--
कट्वम्ललवणात्युष्णतीक्ष्णरूक्षविदाहिनः।आहारा राजसस्येष्टा दुःखशोकामयप्रदाः॥यातयामं गतरसं पूति पर्युषितं च यत्।उच्छिष्टमपि चामेध्यं भोजनं तामसप्रियम्॥अर्थात्, कड़वे, खट्टे, लवणयुक्त, बहुत गरम, तीखे, रूखे, दाहकारक और दुःख, चिन्ता तथा रोगों को उत्पन्न करने वाले आहार राजस पुरुष को प्रिय होते हैं. जो भोजन अधपका, रसरहित, दुर्गन्धयुक्त, बासी और उच्छिष्ट है तथा जो अपवित्र भी है, वह भोजन तामस पुरुष को प्रिय होता है.
इस प्रकार सात्विक, राजसीऔर तामसी तीन प्रकार के भोजन के भेद बतलाने के बाद वैसे भोजन करने वाले तीनों प्रकार के लोग अपनी अपनी मनोवृति के अनुसार ही यज्ञादि में प्रवृत्त होंगे, अतः आगे के ग्यारहवें, बारहवें एवं तेरहवें श्लोक में क्रमशः सात्विक, राजसिक और तामसिक यज्ञ के स्वरूप का वर्णन किया गया है--
अफलाकाङ्क्षिभिर्यज्ञो विधिदृष्टो य इज्यते।यष्टव्यमेवेति मनः समाधाय स सात्त्विकः॥अभिसन्धाय तु फलं दम्भार्थमपि चैव यत्।इज्यते भरतश्रेष्ठ तं यज्ञं विद्धि राजसम्॥विधिहीनमसृष्टान्नं मन्त्रहीनमदक्षिणम्।श्रद्धाविरहितं यज्ञं तामसं परिचक्षते॥अर्थात्, जो शास्त्र विधि से नियत, यज्ञ करना ही कर्तव्य है- इस प्रकार फल न चाहने वाले पुरुषों द्वारा किया गया यज्ञ सात्त्विक है. केवल दम्भाचरण के लिए अथवा फल को भी दृष्टि में रखकर जो यज्ञ किया जाता है, वह यज्ञ राजस है. शास्त्रविधि से हीन, अन्नदान से रहित, बिना मन्त्रों के, बिना दक्षिणा के और बिना श्रद्धा के किए जाने वाले यज्ञ को तामस यज्ञ कहते हैं.
ऊपर तीन तरह के यज्ञस्वरूप पहचान के लिए बताए गए, ताकि कल्याण और मुक्ति मार्ग के पथिक राजसी और तामसी यज्ञ से अपने को दूर रख सकें! इस प्रकार तीन प्रकार के यज्ञों के लक्षण बतलाकर अब तप के भी तीन प्रकारों के लक्षण क्रमशः (सात्विक तप, राजसिक तप, तामसिक तप)बतलाये गए हैं. इसी क्रम में प्रथमतः सात्विक तप का लक्षण बतलाने के लिए शारीरिक, वाणी संबंधी एवं मन से संबंधित तप का वर्णन अगले तीन श्लोकों में एक-एक कर किया गया है--
देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनं शौचमार्जवम्।ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते॥अनुद्वेगकरं वाक्यं सत्यं प्रियहितं च यत्।स्वाध्यायाभ्यसनं चैव वाङ्मयं तप उच्यते॥मनः प्रसादः सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रहः।भावसंशुद्धिरित्येतत्तपो मानसमुच्यते॥अर्थात्, देवता, ब्राह्मण, गुरु और ज्ञानीजनों का पूजन, पवित्रता, सरलता, ब्रह्मचर्य और अहिंसा-- यह शरीर सम्बन्धी तप कहा जाता है. जो उद्वेग न करने वाला, प्रिय और हितकारक एवं यथार्थ भाषण है तथा जो वेद-शास्त्रों के पठन का एवं परमेश्वर के नाम-जप का अभ्यास है-- वही वाणी सम्बन्धी तप कहा जाता है. मन की प्रसन्नता, शान्तभाव, भगवच्चिन्तन करने का स्वभाव, मन का निग्रह और अन्तःकरण के भावों की भलीभाँति पवित्रता, इस प्रकार के तप को मन सम्बन्धी तप कहा जाता है.
आगे सतरहवें, अठारहवें एवं उन्नीसवें श्लोक में तीन प्रकार की श्रद्धा के अनुरूप उन उन श्रद्धाओं से युक्त मनुष्य के द्वारा प्रवृत्यमान तीन प्रकार के तप (सात्विक, राजसी और तामसी) का वर्णन किया गया है, यह भी संकेत दिया गया है कि कल्याण चाहने वाले मनुष्य को तामसी तप का सर्वथा त्याग करना चाहिए--
श्रद्धया परया तप्तं तपस्तत्त्रिविधं नरैः।अफलाकाङ्क्षिभिर्युक्तैः सात्त्विकं परिचक्षते॥सत्कारमानपूजार्थं तपो दम्भेन चैव यत्।क्रियते तदिह प्रोक्तं राजसं चलमध्रुवम्॥मूढग्राहेणात्मनो यत्पीडया क्रियते तपः।परस्योत्सादनार्थं वा तत्तामसमुदाहृतम्॥अर्थात्, फल को न चाहने वाले योगी पुरुषों द्वारा परम श्रद्धा से किए हुए उस पूर्वोक्त तीन प्रकार के तप को सात्त्विक कहते हैं. जो तप सत्कार, मान और पूजा के लिए तथा अन्य किसी स्वार्थ के लिए भी स्वभाव से या पाखण्ड से किया जाता है, वह अनिश्चित एवं क्षणिक फलवाला तप यहाँ राजस कहा गया है. जो तप मूढ़तापूर्वक हठ से, मन, वाणी और शरीर की पीड़ा के सहित अथवा दूसरे का अनिष्ट करने के लिए किया जाता है- वह तप तामस कहा गया है.
क्रमशः
--डॉ. सत्यनारायण पाण्डेय
कट्वम्ललवणात्युष्णतीक्ष्णरूक्षविदाहिनः।
आहारा राजसस्येष्टा दुःखशोकामयप्रदाः॥
यातयामं गतरसं पूति पर्युषितं च यत्।
उच्छिष्टमपि चामेध्यं भोजनं तामसप्रियम्॥
अर्थात्, कड़वे, खट्टे, लवणयुक्त, बहुत गरम, तीखे, रूखे, दाहकारक और दुःख, चिन्ता तथा रोगों को उत्पन्न करने वाले आहार राजस पुरुष को प्रिय होते हैं. जो भोजन अधपका, रसरहित, दुर्गन्धयुक्त, बासी और उच्छिष्ट है तथा जो अपवित्र भी है, वह भोजन तामस पुरुष को प्रिय होता है.
अफलाकाङ्क्षिभिर्यज्ञो विधिदृष्टो य इज्यते।
यष्टव्यमेवेति मनः समाधाय स सात्त्विकः॥
अभिसन्धाय तु फलं दम्भार्थमपि चैव यत्।
इज्यते भरतश्रेष्ठ तं यज्ञं विद्धि राजसम्॥
विधिहीनमसृष्टान्नं मन्त्रहीनमदक्षिणम्।
श्रद्धाविरहितं यज्ञं तामसं परिचक्षते॥
अर्थात्, जो शास्त्र विधि से नियत, यज्ञ करना ही कर्तव्य है- इस प्रकार फल न चाहने वाले पुरुषों द्वारा किया गया यज्ञ सात्त्विक है. केवल दम्भाचरण के लिए अथवा फल को भी दृष्टि में रखकर जो यज्ञ किया जाता है, वह यज्ञ राजस है. शास्त्रविधि से हीन, अन्नदान से रहित, बिना मन्त्रों के, बिना दक्षिणा के और बिना श्रद्धा के किए जाने वाले यज्ञ को तामस यज्ञ कहते हैं.
देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनं शौचमार्जवम्।
ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते॥
अनुद्वेगकरं वाक्यं सत्यं प्रियहितं च यत्।
स्वाध्यायाभ्यसनं चैव वाङ्मयं तप उच्यते॥
मनः प्रसादः सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रहः।
भावसंशुद्धिरित्येतत्तपो मानसमुच्यते॥
अर्थात्, देवता, ब्राह्मण, गुरु और ज्ञानीजनों का पूजन, पवित्रता, सरलता, ब्रह्मचर्य और अहिंसा-- यह शरीर सम्बन्धी तप कहा जाता है. जो उद्वेग न करने वाला, प्रिय और हितकारक एवं यथार्थ भाषण है तथा जो वेद-शास्त्रों के पठन का एवं परमेश्वर के नाम-जप का अभ्यास है-- वही वाणी सम्बन्धी तप कहा जाता है. मन की प्रसन्नता, शान्तभाव, भगवच्चिन्तन करने का स्वभाव, मन का निग्रह और अन्तःकरण के भावों की भलीभाँति पवित्रता, इस प्रकार के तप को मन सम्बन्धी तप कहा जाता है.
श्रद्धया परया तप्तं तपस्तत्त्रिविधं नरैः।
अफलाकाङ्क्षिभिर्युक्तैः सात्त्विकं परिचक्षते॥
सत्कारमानपूजार्थं तपो दम्भेन चैव यत्।
क्रियते तदिह प्रोक्तं राजसं चलमध्रुवम्॥
मूढग्राहेणात्मनो यत्पीडया क्रियते तपः।
परस्योत्सादनार्थं वा तत्तामसमुदाहृतम्॥