ऊँ श्रीपरमात्मने नमः! सुप्रभातः सर्वेषां सज्जनानां ये गीताज्ञानयात्रायां दत्तचितः संलग्नाः सन्ति! अद्य श्रद्धात्रययोगोनाम् सप्तदशोऽध्याये ज्ञानयात्रा करणीयं विद्यते!
प्रिय बन्धुगण!
हमने चतुर्दश अध्याय में कृष्णार्जुन संवाद क्रम में तीन गुणों (सतो गुण, रजो गुण और तमो गुण) के बारे में विस्तार से जाना है, इस अध्याय में अर्जुन ने श्रद्धा युक्त पुरूषों की निष्ठा के बारे में जानना चाहा है, उत्तर स्वरूप भगवान् ने तीन प्रकार की श्रद्धा और तत् अनुसार बरतने वाले पुरूष के स्वरूप भी बतलाए हैं, इसके बाद पूजा, तप, यज्ञ आदि में श्रद्धा का संबंध दिखलाते हुए यह भी स्पष्ट किया है कि श्रद्धा रहित कोई भी कर्म असत् ही कहलाता है.
इस तरह प्रमुखरूप से त्रिविध श्रद्धा (सात्विकी श्रद्धा, राजसी श्रद्धा, त तामसी श्रद्धा) की विभागपूर्वक व्याख्या के कारण ही इस अध्याय का नाम "श्रद्धात्रय विभागयोग"रखा गया है!
इस अध्याय में हम सामान्य लोगो के लिए भी उपयोगी पहला प्रश्न अर्जुन भगवान् से करता है कि--संसार में कुछ ऐसे लोग भी हो सकते हैं, जो शास्त्र विधि न जानते हों, या अन्य कारणों से उसका त्याग कर बैठते हों, परन्तु यज्ञ-पूजादि कर्म श्रद्धापूर्वक करते हों, तो उनकी स्थिति क्या होगी--
ये शास्त्रविधिमुत्सृज्य यजन्ते श्रद्धयान्विताः।तेषां निष्ठा तु का कृष्ण सत्त्वमाहो रजस्तमः॥अर्थात्, अर्जुन बोले- हे कृष्ण! जो मनुष्य शास्त्र विधि को त्यागकर श्रद्धा से युक्त हुए देवादिका पूजन करते हैं, उनकी स्थिति फिर कौन-सी है? सात्त्विकी है अथवा राजसी किंवा तामसी?
अगले दो श्लोकों में इसी प्रश्न का संक्षिप्त उत्तर देते हुए भगवान् ने कहा--
त्रिविधा भवति श्रद्धा देहिनां सा स्वभावजा।सात्त्विकी राजसी चैव तामसी चेति तां श्रृणु॥सत्त्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत।श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छ्रद्धः स एव सः॥अर्थात्, श्री भगवान् बोले- मनुष्यों की वह शास्त्रीय संस्कारों से रहित केवल स्वभाव से उत्पन्न श्रद्धा सात्त्विकी और राजसी तथा तामसी- ऐसे तीनों प्रकार की ही होती है. उसको तू मुझसे सुन. हे भारत! सभी मनुष्यों की श्रद्धा उनके अन्तःकरण के अनुरूप होती है. श्रद्धा ही मनुष्य का निर्माण करती है, इसलिए जो मनुष्य जैसी श्रद्धा रखता है वह उसी के अनुरूप ढल जाता है.
चौथे श्लोक में तीनों श्रद्धा के अनुरूप व्यक्ति की पहचान बताते हुए कहा गया है--
यजन्ते सात्त्विका देवान्यक्षरक्षांसि राजसाः।प्रेतान्भूतगणांश्चान्ये जयन्ते तामसा जनाः॥अर्थात्, सात्त्विक पुरुष देवों को पूजते हैं, राजस पुरुष यक्ष और राक्षसों को तथा अन्य जो तामस मनुष्य हैं, वे प्रेत और भूतगणों को पूजते हैं.
आगे पांचवें एवं छठे श्लोक में श्रद्धा रहित एवं शास्त्रविधि का भी परित्याग (घोर तप करने) वाले की स्थिति का वर्णन इस प्रकार किया गया है--
अशास्त्रविहितं घोरं तप्यन्ते ये तपो जनाः।दम्भाहङ्कारसंयुक्ताः कामरागबलान्विताः॥कर्शयन्तः शरीरस्थं भूतग्राममचेतसः।मां चैवान्तःशरीरस्थं तान्विद्ध्यासुरनिश्चयान्॥अर्थात्, जो मनुष्य शास्त्र विधि से रहित केवल मनःकल्पित घोर तप को तपते हैं तथा दम्भ और अहंकार से युक्त एवं कामना, आसक्ति और बल के अभिमान से भी युक्त हैं, जो शरीर रूप से स्थित भूत समुदाय को और अन्तःकरण में स्थित मुझ परमात्मा को भी कृश करने वाले हैं उन अज्ञानियों को तू आसुर स्वभाव वाले जान.
अगले दो श्लोकों में सात्विक श्रद्धा को अपनाने की बात कह तदनुरूप सात्विक, राजस और तामसी आहार का वर्णन करते हैं ताकि आत्मलाभ चाहने वाला पुरूष राजसी और तामसी आहार का परित्याग कर सिर्फ सात्विक आहार की ओर प्रवृत्त हो सके--
आहारस्त्वपि सर्वस्य त्रिविधो भवति प्रियः।यज्ञस्तपस्तथा दानं तेषां भेदमिमं श्रृणु॥आयुः सत्त्वबलारोग्यसुखप्रीतिविवर्धनाः।रस्याः स्निग्धाः स्थिरा हृद्या आहाराः सात्त्विकप्रियाः॥अर्थात्, भोजन भी सबको अपनी-अपनी प्रकृति के अनुसार तीन प्रकार का प्रिय होता है और वैसे ही यज्ञ, तप और दान भी तीन-तीन प्रकार के होते हैं. उनके इस पृथक्-पृथक् भेद को तू मुझ से सुन! आयु, बुद्धि, बल, आरोग्य, सुख और प्रीति को बढ़ाने वाले, रसयुक्त, चिकने और स्थिर रहने वाले तथा स्वभाव से ही मन को प्रिय- ऐसे आहार अर्थात् भोजन करने के पदार्थ सात्त्विक पुरुष को प्रिय होते हैं!
क्रमशः--डॉ. सत्यनारायण पाण्डेय
ये शास्त्रविधिमुत्सृज्य यजन्ते श्रद्धयान्विताः।
तेषां निष्ठा तु का कृष्ण सत्त्वमाहो रजस्तमः॥
अर्थात्, अर्जुन बोले- हे कृष्ण! जो मनुष्य शास्त्र विधि को त्यागकर श्रद्धा से युक्त हुए देवादिका पूजन करते हैं, उनकी स्थिति फिर कौन-सी है? सात्त्विकी है अथवा राजसी किंवा तामसी?
त्रिविधा भवति श्रद्धा देहिनां सा स्वभावजा।
सात्त्विकी राजसी चैव तामसी चेति तां श्रृणु॥
सत्त्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत।
श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छ्रद्धः स एव सः॥
अर्थात्, श्री भगवान् बोले- मनुष्यों की वह शास्त्रीय संस्कारों से रहित केवल स्वभाव से उत्पन्न श्रद्धा सात्त्विकी और राजसी तथा तामसी- ऐसे तीनों प्रकार की ही होती है. उसको तू मुझसे सुन. हे भारत! सभी मनुष्यों की श्रद्धा उनके अन्तःकरण के अनुरूप होती है. श्रद्धा ही मनुष्य का निर्माण करती है, इसलिए जो मनुष्य जैसी श्रद्धा रखता है वह उसी के अनुरूप ढल जाता है.
यजन्ते सात्त्विका देवान्यक्षरक्षांसि राजसाः।
प्रेतान्भूतगणांश्चान्ये जयन्ते तामसा जनाः॥
अशास्त्रविहितं घोरं तप्यन्ते ये तपो जनाः।
दम्भाहङ्कारसंयुक्ताः कामरागबलान्विताः॥
कर्शयन्तः शरीरस्थं भूतग्राममचेतसः।
मां चैवान्तःशरीरस्थं तान्विद्ध्यासुरनिश्चयान्॥
अर्थात्, जो मनुष्य शास्त्र विधि से रहित केवल मनःकल्पित घोर तप को तपते हैं तथा दम्भ और अहंकार से युक्त एवं कामना, आसक्ति और बल के अभिमान से भी युक्त हैं, जो शरीर रूप से स्थित भूत समुदाय को और अन्तःकरण में स्थित मुझ परमात्मा को भी कृश करने वाले हैं उन अज्ञानियों को तू आसुर स्वभाव वाले जान.
आहारस्त्वपि सर्वस्य त्रिविधो भवति प्रियः।
यज्ञस्तपस्तथा दानं तेषां भेदमिमं श्रृणु॥
आयुः सत्त्वबलारोग्यसुखप्रीतिविवर्धनाः।
रस्याः स्निग्धाः स्थिरा हृद्या आहाराः सात्त्विकप्रियाः॥