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सुप्रभातम्! जय भास्करः! ६९ :: सत्यनारायण पाण्डेय

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ऊँ श्रीपरमात्मने नमः! सुप्रभातः सर्वेषां सुहृद् सज्जनानां कृते ये गीतिज्ञानयज्ञे संलग्नाः सन्ति! अद्यापि दैवासुरसम्पद्विभागयोगो नाम षोडशोऽध्याये एव यात्रा भविष्यति!

प्रिय बन्धुगण!

कल तक हम लोगों ने आसुरी प्रवृत्ति से युक्त मनुष्य के लक्षण, स्वभाव एवं उनके कृत्यों को भगवान् के मुखारविन्द से कहे अनुसार जाना.
अतः हमारी निरन्तर चेष्टा होनी चाहिए कि हम दैवी सम्पदा की ओर ही प्रयत्न पूर्वक प्रवृत्त हों, जिन आसुरी स्वभाव का ज्ञान हो गया है, उससे सदा दूर रहें.

अब भगवान् अगले चार श्लोकों में आसुरी स्वभाव वालों की--'अहंता', 'ममता'और मोह युक्त संकल्पों का निरूपण करते हुए, उन आसुरी प्रवृत्ति वाले मनुष्यों की क्या दुर्गति होती है, उसे भी इस प्रकार बतलाते हैं--

इदमद्य मया लब्धमिमं प्राप्स्ये मनोरथम्‌।
इदमस्तीदमपि मे भविष्यति पुनर्धनम्‌॥
असौ मया हतः शत्रुर्हनिष्ये चापरानपि।
ईश्वरोऽहमहं भोगी सिद्धोऽहं बलवान्सुखी॥
आढयोऽभिजनवानस्मि कोऽन्योऽस्ति सदृशो मया।
यक्ष्ये दास्यामि मोदिष्य इत्यज्ञानविमोहिताः॥
अनेकचित्तविभ्रान्ता मोहजालसमावृताः।
प्रसक्ताः कामभोगेषु पतन्ति नरकेऽशुचौ॥
अर्थात, वे सोचा करते हैं कि मैंने आज यह प्राप्त कर लिया है और अब इस मनोरथ को प्राप्त कर लूँगा. मेरे पास यह इतना धन है और फिर भी यह हो जाएगा. वह शत्रु मेरे द्वारा मारा गया और उन दूसरे शत्रुओं को भी मैं मार डालूँगा. मैं ईश्वर हूँ, ऐश्वर्य को भोगने वाला हूँ. मैं सब सिद्धियों से युक्त हूँ और बलवान्‌ तथा सुखी हूँ. मैं बड़ा धनी और बड़े कुटुम्ब वाला हूँ. मेरे समान दूसरा कौन है? मैं यज्ञ करूँगा, दान दूँगा और आमोद-प्रमोद करूँगा. इस प्रकार अज्ञान से मोहित रहने वाले तथा अनेक प्रकार से भ्रमित चित्त वाले मोहरूप जाल से समावृत और विषयभोगों में अत्यन्त आसक्त आसुर लोग नरक को प्राप्त होते हैं.

अगले चार श्लोकों में यह भी स्पष्ट किया गया है कि आसुरी प्रवृत्ति वाले द्वारा किया गया अभिमान पूर्ण यज्ञ भी उसका उद्धारक नहीं होता अतः पुनः उनके दुर्गुण और दुराचार की चर्चा करते हुए उसकी घोर निन्दा भी करते हैं; तथा उनकी दुर्गति का भी वर्णन करते हैं, ताकि कल्याण चाहने वाले वैसी प्रवृत्ति से दूर रह सकें--

आत्मसम्भाविताः स्तब्धा धनमानमदान्विताः।
यजन्ते नामयज्ञैस्ते दम्भेनाविधिपूर्वकम्‌॥
अहङ्‍कारं बलं दर्पं कामं क्रोधं च संश्रिताः।
मामात्मपरदेहेषु प्रद्विषन्तोऽभ्यसूयकाः॥
तानहं द्विषतः क्रूरान्संसारेषु नराधमान्‌।
क्षिपाम्यजस्रमशुभानासुरीष्वेव योनिषु॥
आसुरीं योनिमापन्ना मूढा जन्मनि जन्मनि।
मामप्राप्यैव कौन्तेय ततो यान्त्यधमां गतिम्‌॥
अर्थात, अपने-आपको ही श्रेष्ठ मानने वाले घमण्डी पुरुष धन और मान के मद से युक्त होकर केवल नाममात्र के यज्ञों द्वारा पाखण्ड से शास्त्रविधिरहित यजन करते हैं, वे अहंकार, बल, घमण्ड, कामना और क्रोधादि के परायण और दूसरों की निन्दा करने वाले पुरुष अपने और दूसरों के शरीर में स्थित मुझ अन्तर्यामी से द्वेष करने वाले होते हैं. उन द्वेष करने वाले पापाचारी और क्रूरकर्मी नराधमों को मैं संसार में बार-बार आसुरी योनियों में ही डालता हूँ. हे अर्जुन! वे मूढ़ मुझको न प्राप्त होकर ही जन्म-जन्म में आसुरी योनि को प्राप्त होते हैं, फिर उससे भी अति नीच गति को ही प्राप्त होते हैं अर्थात्‌ घोर नरकों में पड़ते हैं.

स्वाभाविक है आसुरी प्रवृत्ति एवं वैसे आचरण के परिणाम को जानकर कोई घोर नरक में जाना पसंद नहीं करेगा, फिर यह प्रबल जिज्ञासा भी होगी कि दुर्गति से बचने और परमगति को प्राप्त करने का उपाय क्या है? इसी के उत्तरस्वरूप अगले दो श्लोकों में मनुष्यों के दुर्गति के कारण तथा कल्याण चाहने वालों को परमगति प्राप्ति का उपाय भी बतलाते हुए भगवान् कहते हैं--

त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः।
कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत्‌॥
एतैर्विमुक्तः कौन्तेय तमोद्वारैस्त्रिभिर्नरः।
आचरत्यात्मनः श्रेयस्ततो याति परां गतिम्‌॥
अर्थात, काम, क्रोध तथा लोभ- ये तीन प्रकार के नरक के द्वार आत्मा का नाश करने वाले हैं. अतएव इन तीनों को त्याग देना चाहिए. इन तीनों नरक के द्वारों से मुक्त पुरुष अपने कल्याण का आचरण करता है इससे वह परमगति को प्राप्त हो जाता है!

अब इस अध्याय के अन्त के दो श्लोक विशेष रूप से ध्यान में रखने योग्य हैं. तेइसवें श्लोक में अर्जुन जानना चाहते हैं कि--दैवीसम्पदा के अनुसार आचरण न कर अपनी मान्यता के अनुसार ही कर्म करता रहता है तो उसे परम गति मिलती है या नहीं?
इसका उत्तर देते हुए भगवान् ने स्पष्ट कहा--

यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः।
न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम्‌॥
अर्थात, जो पुरुष शास्त्र विधि को त्यागकर अपनी इच्छा से मनमाना आचरण करता है, वह न सिद्धि को प्राप्त होता है, न परमगति को और न सुख को ही!

स्वाभाविक है, मन में प्रश्न उठेगा शास्त्रविधि त्यागकर किया गया कर्म निष्फल होता है, तो करना क्या चाहिए? भगवान् कहते हैं-- कर्तव्य कर्म और अकर्तव्य कर्म की व्यवस्था शास्त्रों में भली प्रकार दर्शाये गये हैं, अतः कल्याण चाहने वाले मनुष्य को चाहिए कि मनमानी छोड़ कर शास्त्र में बतायी गयी विधि से ही नियत कर्म करे--

तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ।
ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्म कर्तुमिहार्हसि॥

इस प्रकार सोलहवें अध्याय की यात्रा पूर्ण हुई, कल से हमारी यात्रा
"श्रद्धात्रय विभागयोग"सतरहवें अध्याय में प्रविष्ट होगी.

जय श्रीकृष्ण!

क्रमशः!

--डॉ. सत्यनारायण पाण्डेय 


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