Quantcast
Channel: अनुशील
Viewing all articles
Browse latest Browse all 670

सुप्रभातम्! जय भास्करः! ६६ :: सत्यनारायण पाण्डेय

$
0
0


ऊँ श्रीपरमात्मने नमः! सुप्रभातः सर्वेषां सुहृदसज्जनानां कृते ये गीता-ज्ञान-यात्रायां संलग्नाः सन्ति! अद्य पुरूषोत्तमयोगोनामपञ्चदशोऽध्याये यात्राः भविष्यति!

प्रिय बन्धुगण!

अब तक क्रमशः तेरहवें अध्याय में क्षर-अक्षर; चौदहवें अध्याय में गुणत्रय के बारे में हमने जाना. अन्ततः सभी अध्यायों का निष्कर्ष-- परमात्मबुद्धि ज्ञानसंबलित निष्काम कर्मयोग ही है!

पन्द्रहवें अध्याय में 'सर्वशक्तिमान'सर्वव्यपी, सर्वाधार, सगुण परमेश्वर पुरूषोत्तम भगवान् के गुण, प्रभाव और स्वरूप का वर्णन किया गया है.

तेरहवें अध्याय में हम सबों ने जाना है-- क्षर पुरूष(क्षेत्र), अक्षर पुरूष यानी(क्षेत्रज्ञ); इससे आगे पुरूषोत्तम यानी परमेश्वर, सर्वाधार परमात्मा क्षर और अक्षर से भगवान् किस प्रकार उत्तम हैं, वे किसलिए पुरूषोत्तम कहलाते हैं, उन्हे पुरूषोत्तम रूप में जान लेने का क्या फल है, किस प्रकार उन पुरूषोत्तम को प्राप्त किया जा सकता है इत्यादि विषयों के विवेचन के कारण ही इस अध्याय का नाम "पुरूषोत्तमयोग"है!

पन्द्रहवें अध्याय का आरम्भ उस सगुण परमेश्वर पुरूषोत्तम भगवान् के गुण, प्रभाव और स्वरूप का एवं गुणों से अतीत होने में प्रधान साधन वैराग्य और भगवत्-शरणागति के वर्णन के लिए ही किया गया है. अतः इस अध्याय के आरम्भ में पहले संसार से वैराग्य उत्पन्न कराने के उद्देश्य से तीन श्लोकों में संसार का वर्णन वृक्ष के रूप में करते हुए "उस संसाररूप वृक्ष"को "वैराग्य"रूपी शस्त्र द्वारा छेदन करने के लिए प्रेरित् किया गया है--

ऊर्ध्वमूलमधः शाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम्‌ । 
छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित्‌ ॥ 
अधश्चोर्ध्वं प्रसृतास्तस्य शाखा गुणप्रवृद्धा विषयप्रवालाः । 
अधश्च मूलान्यनुसन्ततानि कर्मानुबन्धीनि मनुष्यलोके ॥
न रूपमस्येह तथोपलभ्यते नान्तो न चादिर्न च सम्प्रतिष्ठा । 
अश्वत्थमेनं सुविरूढमूल मसङ्‍गशस्त्रेण दृढेन छित्त्वा ॥ 
अर्थात्, श्री भगवान बोले- आदिपुरुष परमेश्वर रूप मूल वाले और ब्रह्मारूप मुख्य शाखा वाले जिस संसार रूप पीपल वृक्ष को अविनाशी कहते हैं, तथा वेद जिसके पत्ते कहे गए हैं, उस संसार रूप वृक्ष को जो पुरुष मूलसहित सत्त्व से जानता है, वह वेद के तात्पर्य को जानने वाला है. भगवान्‌ की योगमाया से उत्पन्न हुआ संसार क्षणभंगुर, नाशवान और दुःखरूप है, इसके चिन्तन को त्याग कर केवल परमेश्वर ही नित्य-निरन्तर, अनन्य प्रेम से चिन्तन करना 'वेद के तात्पर्य को जानना'है. उस संसार वृक्ष की तीनों गुणोंरूप जल के द्वारा बढ़ी हुई एवं विषय-भोग रूप कोंपलोंवाली देव, मनुष्य और तिर्यक्‌ आदि योनिरूप शाखाएँ नीचे और ऊपर सर्वत्र फैली हुई हैं तथा मनुष्य लोक में कर्मों के अनुसार बाँधने वाली अहंता-ममता और वासना रूप जड़ें भी नीचे और ऊपर सभी लोकों में व्याप्त हो रही हैं. 

इस संसार वृक्ष का स्वरूप जैसा कहा है वैसा तत्त्व ज्ञान होने के पश्चात नहीं पाया जाता, जिस प्रकार आँख खुलने के पश्चात स्वप्न का संसार नहीं पाया जाता. वैराग्य रूप शस्र से संसाररूप वृक्ष का छेदन कर परमात्मा को खोजने की ओर प्रेरित किया गया है--

ततः पदं तत्परिमार्गितव्यं यस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूयः । 
तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्ये यतः प्रवृत्तिः प्रसृता पुराणी ॥ 
अर्थात्, परम-पदरूप परमेश्वर को भलीभाँति खोजना चाहिए, जिसे प्राप्त कर पुरुष फिर लौटकर संसार में नहीं आते और जिस परमेश्वर से इस पुरातन संसार वृक्ष की प्रवृत्ति विस्तार को प्राप्त हुई है, उसी आदिपुरुष नारायण के मैं शरण हूँ- इस प्रकार दृढ़ निश्चय करके उस परमेश्वर का मनन और निदिध्यासन करना चाहिए.

इससे आगे जीवात्मा का स्वरूप, परमात्मा (पुरूषोत्तम) का स्वरूप, प्राप्ति के उपाय आदि का वर्णन पांचवें से नवें श्लोक में इस प्रकार किया गया है--

निर्मानमोहा जितसङ्गदोषाअध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामाः ।
द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदुःखसञ्ज्ञैर्गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत्‌ ॥ 
न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः । 
यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ॥
ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः । 
मनः षष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति ॥
शरीरं यदवाप्नोति यच्चाप्युत्क्रामतीश्वरः । 
गृहीत्वैतानि संयाति वायुर्गन्धानिवाशयात्‌ ॥
श्रोत्रं चक्षुः स्पर्शनं च रसनं घ्राणमेव च । 
अधिष्ठाय मनश्चायं विषयानुपसेवते ॥ 
अर्थात्, जिनका मान और मोह नष्ट हो गया है, जिन्होंने आसक्ति रूप दोष को जीत लिया है, जिनकी परमात्मा के स्वरूप में नित्य स्थिति है और जिनकी कामनाएँ पूर्ण रूप से नष्ट हो गई हैं- वे सुख-दुःख नामक द्वन्द्वों से विमुक्त ज्ञानीजन उस अविनाशी परम पद को प्राप्त होते हैं. जिस परम पद को प्राप्त होकर मनुष्य लौटकर संसार में नहीं आते उस स्वयं प्रकाश परम पद को न सूर्य प्रकाशित कर सकता है, न चन्द्रमा और न अग्नि ही, वही मेरा परम धाम है. इस देह में यह जीवात्मा मेरा ही सनातन अंश है और वही इन प्रकृति में स्थित मन और पाँचों इन्द्रियों को आकर्षित करता है. वायु गन्ध के स्थान से गन्ध को जैसे ग्रहण करके ले जाता है, वैसे ही देहादि का स्वामी जीवात्मा भी जिस शरीर का त्याग करता है, उससे इन मन सहित इन्द्रियों को ग्रहण करके फिर जिस शरीर को प्राप्त होता है. यह जीवात्मा श्रोत्र, चक्षु और त्वचा को तथा रसना, घ्राण और मन के सहारे से ही विषयों का सेवन करता है.

क्रमशः 

--डॉ. सत्यनारायण पाण्डेय 


Viewing all articles
Browse latest Browse all 670

Trending Articles