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सुप्रभातम्! जय भास्करः! ६७ :: सत्यनारायण पाण्डेय

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ऊँ श्रीपरमात्मने नमः! सुप्रभातः सर्वेषां सुहृदसज्जनानां कृते ये गीता-ज्ञान-यात्रायां संलग्नाः सन्ति! अद्यापि पुरषोत्तमयोगोनाम पञ्चदशोऽध्याये एव यात्रा भविष्यति!

प्रिय बन्धुगण!

कल तक हमलोगों ने इस अध्याय के नवें श्लोक तक यह जाना कि--जीवात्मा तीन गुणो से सम्बद्ध, एक शरीर को छोड़कर दूसरे शरीर में जाने वाला तथा शरीर में रहते हुए विषयों का सेवन करने वाला होता है. यहां यह जानने की इच्छा होगी कि शरीर से मुक्ति के लिए ऐसे आत्मा को कैसे जाना जा सकता है? कौन जान पाता है? कौन नहीं जान पाता, इस जिज्ञासा की शान्ति के लिए दशवें एवं ग्यारहवें श्लोक में भगवान् कहते हैं--

उत्क्रामन्तं स्थितं वापि भुञ्जानं वा गुणान्वितम्‌।
विमूढा नानुपश्यन्ति पश्यन्ति ज्ञानचक्षुषः॥
यतन्तो योगिनश्चैनं पश्यन्त्यात्मन्यवस्थितम्‌।
यतन्तोऽप्यकृतात्मानो नैनं पश्यन्त्यचेतसः॥
अर्थात, शरीर को छोड़कर जाते हुए को अथवा शरीर में स्थित हुए को अथवा विषयों को भोगते हुए को इस प्रकार तीनों गुणों से युक्त हुए को भी अज्ञानीजन नहीं जानते, केवल ज्ञानरूप नेत्रों वाले विवेकशील ज्ञानी ही तत्त्व से जानते हैं. यत्न करने वाले योगीजन भी अपने हृदय में स्थित इस आत्मा को तत्त्व से जानते हैं, किन्तु जिन्होंने अपने अन्तःकरण को शुद्ध नहीं किया है, ऐसे अज्ञानीजन तो यत्न करते रहने पर भी इस आत्मा को नहीं जानते.

अब आगे भगवान् बारहवें से पंद्रहवें श्लोक तक गुण, प्रभाव और ऐश्वर्य सहित अपने स्वरूप का वर्णन करते हैं, ताकि ज्ञानी जीवात्मा उन्हे सहज ही जान सके--

यदादित्यगतं तेजो जगद्भासयतेऽखिलम्‌।
यच्चन्द्रमसि यच्चाग्नौ तत्तेजो विद्धि मामकम्‌॥
गामाविश्य च भूतानि धारयाम्यहमोजसा।
पुष्णामि चौषधीः सर्वाः सोमो भूत्वा रसात्मकः॥
अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रितः।
प्राणापानसमायुक्तः पचाम्यन्नं चतुर्विधम्‌॥
सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टो मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च।
वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो-वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम्‌॥
अर्थात, सूर्य में स्थित जो तेज सम्पूर्ण जगत को प्रकाशित करता है तथा जो तेज चन्द्रमा में है और जो अग्नि में है- उसको तू मेरा ही तेज जान और मैं ही पृथ्वी में प्रवेश करके अपनी शक्ति से सब भूतों को धारण करता हूँ और अमृतमय चन्द्रमा होकर सम्पूर्ण ओषधियों को पुष्ट करता हूँ, मैं ही सब प्राणियों के शरीर में स्थित रहने वाला प्राण और अपान से संयुक्त वैश्वानर अग्नि रूप होकर चार (भक्ष्य, भोज्य, लेह्य और चोष्य) प्रकार के अन्न को पचाता हूँ, मैं ही सब प्राणियों के हृदय में अन्तर्यामी रूप से स्थित हूँ तथा मुझसे ही स्मृति, ज्ञान और अपोहन (विचार द्वारा बुद्धि में रहने वाले संशय, विपर्यय आदि दोषों को हटाने का नाम 'अपोहन'है) होता है और सब वेदों द्वारा मैं ही जानने योग्य हूँ तथा वेदान्त का कर्ता और वेदों को जानने वाला भी मैं ही हूँ!

अध्याय की समाप्ति तक में पूर्वोक्त तीनों प्रकारों का "क्षर, अक्षर और इन दोनो से श्रेष्ठ पुरूषोत्तम"का स्वरूप बतलाते हुए, उन्हें "पुरूषोत्तम्"समझने वाले पुरूष (जीवात्मा) की महिमा और लक्षण बतलाते हुए, यहां वर्णित विषय को गुह्यतम बतलाते हुए भगवान् यह कहते हुए इस अध्याय का उपसंहार करते हैं कि इसे तत्त्व से जानकर मनुष्य ज्ञानवान् और कृतार्थ हो जाता है--

द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च।
क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते॥
उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः।
यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वरः॥
यस्मात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तमः।
अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः॥
यो मामेवमसम्मूढो जानाति पुरुषोत्तमम्‌।
स सर्वविद्भजति मां सर्वभावेन भारत॥
इति गुह्यतमं शास्त्रमिदमुक्तं मयानघ।
एतद्‍बुद्ध्वा बुद्धिमान्स्यात्कृतकृत्यश्च भारत॥
अर्थात, इस संसार में नाशवान और अविनाशी भी, ये दो प्रकार के पुरुष हैं. इनमें सम्पूर्ण भूतप्राणियों के शरीर को नाशवान और जीवात्मा अविनाशी कहा जाता है. इन दोनों से उत्तम पुरुष तो अन्य ही है, जो तीनों लोकों में प्रवेश करके सबका धारण-पोषण करता है एवं  उसे अविनाशी परमात्मा कहा गया है क्योंकि मैं नाशवान जड़वर्ग- क्षेत्र से तो सर्वथा अतीत हूँ और अविनाशी जीवात्मा से भी उत्तम हूँ, इसलिए लोक में और वेद में भी पुरुषोत्तम नाम से प्रसिद्ध हूँ. जो ज्ञानी पुरुष मुझको इस प्रकार तत्त्व से पुरुषोत्तम जानता है, वह सर्वज्ञ पुरुष सब प्रकार से निरन्तर मुझ वासुदेव परमेश्वर को ही भजता है. इस प्रकार यह अति रहस्ययुक्त गोपनीय शास्त्र मेरे द्वारा कहा गया, इसको तत्त्व से जानकर मनुष्य ज्ञानवान और कृतार्थ हो जाता है!

कृतार्थ-- कृत+अर्थ=कृतार्थ होना अर्थात् करने का प्रतिफल कर्ता को पूर्ण रूप से प्राप्त हो जाना. इसी प्रकार गीता में पहले ही शब्द आया है--"कृत्यकृत्यश्च भारत"अर्थात् कृत्य कृत्य हो जाये=करना करना हो जाये, करना सफल हो जाये तभी तो कुछ करने का मतलब भी है, वह करना क्या करना है, हम करने में समय भी गँवा रहे होते हैं और वह करना न करने के बराबर ही रह जाये.

यहां हम सब को भी "कृतार्थ"के अर्थ को भली-भाँति समझते हुए "कृत्यकृत्य"हो जाना है.

अगले दिन हम दैवासुरसम्पद्विभागयोगोनाम षोडशोऽध्यायः की यात्रा में प्रवृत्त होंगे।

क्रमशः
जय श्रीकृष्णः

--डॉ. सत्यनारायण पाण्डेय 


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