$ 0 0 कितने छलकितने ही कल से गुजरते हुए पहुँचते हैं हम दिसम्बर की दहलीज़ पर ठिठुरता हुआ दिसम्बरढ़ेरों बीते कलऔर अनगिन रीते पलों का हिसाब करता हुआखुद ही रीत जाता है वो भी बीत जाता है.बीतते हुएवो हमें थमा जाता हैआगे के लिए कुछ नए संकल्पकुछ मौन आश्वस्तियाँ और स्मृतियों का समूचा संसार--जितनी कड़वाहटें हमने पी हैंजितनी टूटन हमने सी है जितने आँसू रोये हैंजितनी मुस्कुराहटों के बीज बोये हैं वो सारे विम्ब साथ रह जाने हैं समय के प्रवाह में लम्हें सारे बह जाने हैं !