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सुप्रभातम्! जय भास्करः! ६१ :: सत्यनारायण पाण्डेय

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सुप्रभातः सर्वेषां सुहृदसज्जनानां कृते ये गीताज्ञानयज्ञे संलग्नाः सन्ति! अद्यापि  क्षेत्रक्षत्रज्ञयोगोनामत्रयोदशाध्यायस्यैवा यात्रा भविष्यति।

प्रिय बन्धुगण!

कल ग्यारहवें श्लोक तक ज्ञान किसे कहते हैं और अज्ञान क्या है, इसे हमने जाना है. यहां यह जिज्ञासा हो सकती है कि इन साधनो द्वारा प्राप्त 'ज्ञान'से जानने योग्य वस्तु क्या है और उसे जान लेने से क्या होता है? इसका उत्तर है--"अमृतत्व की प्राप्ति"
अब आगे के छः श्लोकों में जानने योग्य परमात्मा के स्वरूप का वर्णन किया गया है, जिसे साधक नित्य स्मरण रखते हुए परमानन्द को प्राप्त हो जाता है--

ज्ञेयं यत्तत्वप्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वामृतमश्नुते । 
अनादिमत्परं ब्रह्म न सत्तन्नासदुच्यते ॥ 
सर्वतः पाणिपादं तत्सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम्‌ । 
सर्वतः श्रुतिमल्लोके सर्वमावृत्य तिष्ठति ॥
सर्वेन्द्रियगुणाभासं सर्वेन्द्रियविवर्जितम्‌ । 
असक्तं सर्वभृच्चैव निर्गुणं गुणभोक्तृ च ॥ 
बहिरन्तश्च भूतानामचरं चरमेव च । 
सूक्ष्मत्वात्तदविज्ञयं दूरस्थं चान्तिके च तत्‌ ॥ 
अविभक्तं च भूतेषु विभक्तमिव च स्थितम्‌ । 
भूतभर्तृ च तज्ज्ञेयं ग्रसिष्णु प्रभविष्णु च ॥
ज्योतिषामपि तज्ज्योतिस्तमसः परमुच्यते । 
ज्ञानं ज्ञेयं ज्ञानगम्यं हृदि सर्वस्य विष्ठितम्‌ ॥
इति क्षेत्रं तथा ज्ञानं ज्ञेयं चोक्तं समासतः । 
मद्भक्त एतद्विज्ञाय मद्भावायोपपद्यते ॥
अर्थात्, जो जानने योग्य है तथा जिसको जानकर मनुष्य परमानन्द को प्राप्त होता है, उसको भलीभाँति कहूँगा. वह अनादिवाला परमब्रह्म न सत्‌ ही कहा जाता है, न असत्‌ ही. वह सब ओर हाथ-पैर वाला, सब ओर नेत्र, सिर और मुख वाला तथा सब ओर कान वाला है, क्योंकि वह संसार में सबको व्याप्त करके स्थित है. वह सम्पूर्ण इन्द्रियों के विषयों को जानने वाला है, परन्तु वास्तव में सब इन्द्रियों से रहित है तथा आसक्ति रहित होने पर भी सबका धारण-पोषण करने वाला और निर्गुण होने पर भी गुणों को भोगने वाला है. वह चराचर सब भूतों के बाहर-भीतर परिपूर्ण है और चर-अचर भी वही है. और वह सूक्ष्म होने से अविज्ञेय है तथा अति समीप में व दूर में भी वही स्थित है. वह परमात्मा विभागरहित एक रूप से आकाश के सदृश परिपूर्ण होने पर भी चराचर सम्पूर्ण भूतों में विभक्त-सा स्थित प्रतीत होता है तथा वह जानने योग्य परमात्मा विष्णुरूप से भूतों को धारण-पोषण करने वाला और रुद्ररूप से संहार करने वाला तथा ब्रह्मारूप से सबको उत्पन्न करने वाला है. वह परब्रह्म ज्योतियों की भी ज्योति एवं माया से अत्यन्त परे कहा जाता है. वह परमात्मा बोधस्वरूप, जानने के योग्य एवं तत्वज्ञान से प्राप्त करने योग्य है और सबके हृदय में विशेष रूप से स्थित है. 

इस प्रकार यहां तक क्षेत्र तथा ज्ञान और जानने योग्य परमात्मा के स्वरूप का संक्षिप्त वर्णन के बाद भगवान पुनः प्रकृति और पुरूष को अलग अलग समझाने के लिए प्रकृति-पुरूष की अनादिता का प्रतिपादन एवं समस्त गुण और विकारों को प्रकृति जन्य बतलाते हुए कहते हैं--

प्रकृतिं पुरुषं चैव विद्ध्‌यनादी उभावपि । 
विकारांश्च गुणांश्चैव विद्धि प्रकृतिसम्भवान्‌ ॥ 
कार्यकरणकर्तृत्वे हेतुः प्रकृतिरुच्यते । 
पुरुषः सुखदुःखानां भोक्तृत्वे हेतुरुच्यते ॥ 
पुरुषः प्रकृतिस्थो हि भुङ्‍क्ते प्रकृतिजान्गुणान्‌ । 
कारणं गुणसंगोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु ॥
अर्थात्, प्रकृति और पुरुष- इन दोनों को ही तू अनादि जान और राग-द्वेषादि विकारों को तथा त्रिगुणात्मक सम्पूर्ण पदार्थों को भी प्रकृति से ही उत्पन्न जान. कार्य और करण को उत्पन्न करने में हेतु प्रकृति कही जाती है और जीवात्मा सुख-दुःखों के भोक्तपन में हेतु कहा जाता है.
प्रकृति में स्थित ही पुरुष प्रकृति से उत्पन्न त्रिगुणात्मक पदार्थों को भोगता है और इन गुणों का संग ही इस जीवात्मा के अच्छी-बुरी योनियों में जन्म लेने का कारण है.

इस प्रकार प्रकृतिस्थ पुरूष के स्वरूप का निर्धारण हो जाने के बाद जीवात्मा और परमात्मा की एकता बतलाते हुए आत्मा के गुणातीत स्वरूप को बतलाते हुए कहा गया है कि--

उपद्रष्टानुमन्ता च भर्ता भोक्ता महेश्वरः । 
परमात्मेति चाप्युक्तो देहेऽस्मिन्पुरुषः परः ॥ 
य एवं वेत्ति पुरुषं प्रकृतिं च गुणैः सह । 
सर्वथा वर्तमानोऽपि न स भूयोऽभिजायते ॥ 
ध्यानेनात्मनि पश्यन्ति केचिदात्मानमात्मना । 
अन्ये साङ्‍ख्येन योगेन कर्मयोगेन चापरे ॥ 
अन्ये त्वेवमजानन्तः श्रुत्वान्येभ्य उपासते । 
तेऽपि चातितरन्त्येव मृत्युं श्रुतिपरायणाः ॥ 
अर्थात्, इस देह में स्थित यह आत्मा वास्तव में परमात्मा ही है. वह साक्षी होने से उपद्रष्टा और यथार्थ सम्मति देने वाला होने से अनुमन्ता, सबका धारण-पोषण करने वाला होने से भर्ता, जीवरूप से भोक्ता, ब्रह्मा आदि का भी स्वामी होने से महेश्वर और शुद्ध सच्चिदानन्दघन होने से परमात्मा हैं. इस प्रकार पुरुष को और गुणों के सहित प्रकृति को जो मनुष्य तत्व से जानता है वह सब प्रकार से कर्तव्य कर्म करता हुआ भी फिर नहीं जन्मता. उस परमात्मा को कितने ही मनुष्य तो शुद्ध हुई सूक्ष्म बुद्धि से ध्यान द्वारा हृदय में देखते हैं, अन्य कितने ही ज्ञानयोग द्वारा और दूसरे कितने ही कर्मयोग द्वारा देखते हैं. परन्तु जो मंदबुद्धिवाले पुरुष हैं, वे इस प्रकार न जानते हुए दूसरों से से सुनकर ही तदनुसार उपासना करते हैं और वे श्रवणपरायण पुरुष भी मृत्युरूप संसार-सागर को निःसंदेह तर जाते हैं.

इस प्रकार यहां तक परमात्म सम्बन्धी तत्व ज्ञान के भिन्न भिन्न साधनों का उल्लेख हुआ जिसे जान कर कोई भी पुरूष मृत्यु रूप संसार सागर को निःसंदेह तर सकता है!

क्रमशः

--डॉ. सत्यनारायण पाण्डेय 


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