सुप्रभातः सर्वेषां सुहृदसज्जनानां कृते ये गीताज्ञानयज्ञे संलग्नाः सन्ति, गीताज्ञान यात्रायायां द्वदशाध्यायपर्यन्तं यात्रा सम्पन्ना जाता। अद्य क्षेत्रक्षत्रज्ञयोर्नाम् त्रयोदशाध्याये यात्रा भविष्यति।
प्रिय बन्धुगण!
तेरहवें अध्याय में क्षेत्र (शरीर) क्षेत्रज्ञ (आत्मा) की अलग अलग विषद व्याख्या प्रस्तुत कर नाशवान पञ्चभौतिक शरीर एवं अमर आत्मा के स्वरूप को समझाया गया है. इस अध्याय का मुख्य विषय "क्षेत्र"और "क्षेत्रज्ञ"दोनो के स्वरूप का विवेचन ही है, इसलिए इस अध्याय का नाम "क्षेत्रक्षेत्रज्ञविभागयोग"रखा गया है.
इससे पहले के अध्याय में निर्गुण-निराकार तत्त्व अर्थात् ज्ञान योग का विषय आया ही है, उसे भलीभाँति समझने के लिए ही इस अध्याय में इस विषय को रखा गया है. अतः पहले श्लोक में क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का लक्षण भगवान इस प्रकार बतलाते हैं-- शरीर ही 'क्षेत्र'कहलाता है; और इसको जो जानता है, उसे ही 'क्षेत्रज्ञ'नाम दिया गया है, तत्त्व को जानने वाले ज्ञानीजन इसे समझते हैं--
इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते।
एतद्यो वेत्ति तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ इति तद्विदः॥
इस प्रकार पञ्चभौतिक शरीर क्षेत्र हुआ और उसमें निवास करती आत्मा ही क्षेत्रज्ञ कहलाती है. क्षेत्र यानी शरीर जड़, विकारी और नाशवान है, पर क्षेत्रज्ञ (आत्मा) चेतन, ज्ञानस्वरूप, नित्य और अविनाशी है. कुछ लोग अज्ञान के कारण दोनो को एक समझने की भूल कर बैठते हैं, अतः दोनों का प्रथम श्लोक में लक्षण बतलाने के बाद द्वितीय श्लोक में क्षेत्रज्ञ (आत्मा) और परमात्मा की एकता बतलाते हुए ज्ञान का लक्षण भी इस प्रकार बतलाते हैं--
क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्ज्ञानं यत्तज्ज्ञानं मतं मम॥
अर्थात्, हे अर्जुन! तू सब क्षेत्रों में क्षेत्रज्ञ अर्थात जीवात्मा भी मुझे ही जान और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ को अर्थात विकार सहित प्रकृति और पुरुष का जो तत्व से जानना है वह ज्ञान है- ऐसा मेरा मत है.
आगे यह बतलाया गया है कि--इस प्रकार क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का पूर्ण ज्ञान हो जाने पर संसार चक्र का नाश हो जाता है और परमात्मा की सहज प्राप्ति भी सम्भव हो जाती है, अतएव आगे क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ को विभाग पूर्वक समझाते हुए भगवान् कहते हैं--
तत्क्षेत्रं यच्च यादृक्च यद्विकारि यतश्च यत्।
स च यो यत्प्रभावश्च तत्समासेन मे श्रृणु॥
ऋषिभिर्बहुधा गीतं छन्दोभिर्विविधैः पृथक् ।
ब्रह्मसूत्रपदैश्चैव हेतुमद्भिर्विनिश्चितैः ॥
अर्थात्, वह क्षेत्र जो और जैसा है तथा जिन विकारों वाला है और जिस कारण से जो हुआ है तथा वह क्षेत्रज्ञ भी जो और जिस प्रभाववाला है- वह सब संक्षेप में मुझसे सुन. यह क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का तत्व ऋषियों द्वारा बहुत प्रकार से कहा गया है और विविध वेदमन्त्रों द्वारा भी विभागपूर्वक कहा गया है तथा भलीभाँति निश्चय किए हुए युक्तियुक्त ब्रह्मसूत्र के पदों द्वारा भी कहा गया है.
इस प्रकार ऋषि, वेद और ब्रह्मसूत्र का प्रमाण देकर अब भगवान् तीसरे श्लोक में 'यत्'पद से कहे हुए 'क्षेत्र'का और 'यद्विकारी'पद से कहे हुए उसके विकारों का अगले पांचवें एवं छठे श्लोक में इस प्रकार वर्णन करते हैं--
महाभूतान्यहङ्कारो बुद्धिरव्यक्तमेव च ।
इन्द्रियाणि दशैकं च पञ्च चेन्द्रियगोचराः ॥
इच्छा द्वेषः सुखं दुःखं सङ्घातश्चेतना धृतिः ।
एतत्क्षेत्रं समासेन सविकारमुदाहृतम् ॥
अर्थात्, पाँच महाभूत, अहंकार, बुद्धि और मूल प्रकृति भी तथा दस इन्द्रियाँ, एक मन और पाँच इन्द्रियों के विषय अर्थात शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध तथा इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख, स्थूल देह का पिण्ड, चेतना और धृति-- इस प्रकार विकारों के सहित यह क्षेत्र संक्षेप में कहा गया.
इस प्रकार क्षेत्र और उसके विकारों का वर्णन करने के बाद ,जो दूसरे श्लोक में संकेतित था कि क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ जो ज्ञान है, वही मेरे मत में ज्ञान है-- उसी ज्ञान को प्राप्त करने के साधनों का "ज्ञान"के ही नाम से सातवें से ग्यारहवें श्लोक में भगवान इस प्रकार करते हैं--
अमानित्वमदम्भित्वमहिंसा क्षान्तिरार्जवम् ।
आचार्योपासनं शौचं स्थैर्यमात्मविनिग्रहः ॥
इन्द्रियार्थेषु वैराग्यमनहङ्कार एव च ।
जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम् ॥
असक्तिरनभिष्वङ्ग: पुत्रदारगृहादिषु ।
नित्यं च समचित्तत्वमिष्टानिष्टोपपत्तिषु ॥
मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी ।
विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि ॥
अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं तत्वज्ञानार्थदर्शनम् ।
एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोऽन्यथा ॥
अर्थात्, श्रेष्ठता के अभिमान का अभाव, दम्भाचरण का अभाव, किसी भी प्राणी को किसी प्रकार भी न सताना, क्षमाभाव, मन-वाणी आदि की सरलता, श्रद्धा-भक्ति सहित गुरु की सेवा, बाहर-भीतर की शुद्धि अन्तःकरण की स्थिरता और मन-इन्द्रियों सहित शरीर का निग्रह; इस लोक और परलोक के सम्पूर्ण भोगों में आसक्ति का अभाव और अहंकार का भी अभाव, जन्म, मृत्यु, जरा और रोग आदि में दुःख और दोषों का बार-बार विचार करना; पुत्र, स्त्री, घर और धन आदि में आसक्ति का अभाव, ममता का न होना तथा प्रिय और अप्रिय की प्राप्ति में सदा ही चित्त का सम रहना; मुझ परमेश्वर में अनन्य योग द्वारा अव्यभिचारिणी भक्ति तथा एकान्त और शुद्ध देश में रहने का स्वभाव और विषयासक्त मनुष्यों के समुदाय में प्रेम का न होना; अध्यात्म ज्ञान में नित्य स्थिति और तत्वज्ञान के अर्थरूप परमात्मा को ही देखना- यह सब ज्ञान है और जो इसके विपरीत है वह अज्ञान है!
क्रमशः!
--डॉ. सत्यनारायण पाण्डेय
प्रिय बन्धुगण!
तेरहवें अध्याय में क्षेत्र (शरीर) क्षेत्रज्ञ (आत्मा) की अलग अलग विषद व्याख्या प्रस्तुत कर नाशवान पञ्चभौतिक शरीर एवं अमर आत्मा के स्वरूप को समझाया गया है. इस अध्याय का मुख्य विषय "क्षेत्र"और "क्षेत्रज्ञ"दोनो के स्वरूप का विवेचन ही है, इसलिए इस अध्याय का नाम "क्षेत्रक्षेत्रज्ञविभागयोग"रखा गया है.
इससे पहले के अध्याय में निर्गुण-निराकार तत्त्व अर्थात् ज्ञान योग का विषय आया ही है, उसे भलीभाँति समझने के लिए ही इस अध्याय में इस विषय को रखा गया है. अतः पहले श्लोक में क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का लक्षण भगवान इस प्रकार बतलाते हैं-- शरीर ही 'क्षेत्र'कहलाता है; और इसको जो जानता है, उसे ही 'क्षेत्रज्ञ'नाम दिया गया है, तत्त्व को जानने वाले ज्ञानीजन इसे समझते हैं--
इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते।
एतद्यो वेत्ति तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ इति तद्विदः॥
इस प्रकार पञ्चभौतिक शरीर क्षेत्र हुआ और उसमें निवास करती आत्मा ही क्षेत्रज्ञ कहलाती है. क्षेत्र यानी शरीर जड़, विकारी और नाशवान है, पर क्षेत्रज्ञ (आत्मा) चेतन, ज्ञानस्वरूप, नित्य और अविनाशी है. कुछ लोग अज्ञान के कारण दोनो को एक समझने की भूल कर बैठते हैं, अतः दोनों का प्रथम श्लोक में लक्षण बतलाने के बाद द्वितीय श्लोक में क्षेत्रज्ञ (आत्मा) और परमात्मा की एकता बतलाते हुए ज्ञान का लक्षण भी इस प्रकार बतलाते हैं--
क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्ज्ञानं यत्तज्ज्ञानं मतं मम॥
अर्थात्, हे अर्जुन! तू सब क्षेत्रों में क्षेत्रज्ञ अर्थात जीवात्मा भी मुझे ही जान और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ को अर्थात विकार सहित प्रकृति और पुरुष का जो तत्व से जानना है वह ज्ञान है- ऐसा मेरा मत है.
आगे यह बतलाया गया है कि--इस प्रकार क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का पूर्ण ज्ञान हो जाने पर संसार चक्र का नाश हो जाता है और परमात्मा की सहज प्राप्ति भी सम्भव हो जाती है, अतएव आगे क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ को विभाग पूर्वक समझाते हुए भगवान् कहते हैं--
तत्क्षेत्रं यच्च यादृक्च यद्विकारि यतश्च यत्।
स च यो यत्प्रभावश्च तत्समासेन मे श्रृणु॥
ऋषिभिर्बहुधा गीतं छन्दोभिर्विविधैः पृथक् ।
ब्रह्मसूत्रपदैश्चैव हेतुमद्भिर्विनिश्चितैः ॥
अर्थात्, वह क्षेत्र जो और जैसा है तथा जिन विकारों वाला है और जिस कारण से जो हुआ है तथा वह क्षेत्रज्ञ भी जो और जिस प्रभाववाला है- वह सब संक्षेप में मुझसे सुन. यह क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का तत्व ऋषियों द्वारा बहुत प्रकार से कहा गया है और विविध वेदमन्त्रों द्वारा भी विभागपूर्वक कहा गया है तथा भलीभाँति निश्चय किए हुए युक्तियुक्त ब्रह्मसूत्र के पदों द्वारा भी कहा गया है.
इस प्रकार ऋषि, वेद और ब्रह्मसूत्र का प्रमाण देकर अब भगवान् तीसरे श्लोक में 'यत्'पद से कहे हुए 'क्षेत्र'का और 'यद्विकारी'पद से कहे हुए उसके विकारों का अगले पांचवें एवं छठे श्लोक में इस प्रकार वर्णन करते हैं--
महाभूतान्यहङ्कारो बुद्धिरव्यक्तमेव च ।
इन्द्रियाणि दशैकं च पञ्च चेन्द्रियगोचराः ॥
इच्छा द्वेषः सुखं दुःखं सङ्घातश्चेतना धृतिः ।
एतत्क्षेत्रं समासेन सविकारमुदाहृतम् ॥
अर्थात्, पाँच महाभूत, अहंकार, बुद्धि और मूल प्रकृति भी तथा दस इन्द्रियाँ, एक मन और पाँच इन्द्रियों के विषय अर्थात शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध तथा इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख, स्थूल देह का पिण्ड, चेतना और धृति-- इस प्रकार विकारों के सहित यह क्षेत्र संक्षेप में कहा गया.
इस प्रकार क्षेत्र और उसके विकारों का वर्णन करने के बाद ,जो दूसरे श्लोक में संकेतित था कि क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ जो ज्ञान है, वही मेरे मत में ज्ञान है-- उसी ज्ञान को प्राप्त करने के साधनों का "ज्ञान"के ही नाम से सातवें से ग्यारहवें श्लोक में भगवान इस प्रकार करते हैं--
अमानित्वमदम्भित्वमहिंसा क्षान्तिरार्जवम् ।
आचार्योपासनं शौचं स्थैर्यमात्मविनिग्रहः ॥
इन्द्रियार्थेषु वैराग्यमनहङ्कार एव च ।
जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम् ॥
असक्तिरनभिष्वङ्ग: पुत्रदारगृहादिषु ।
नित्यं च समचित्तत्वमिष्टानिष्टोपपत्तिषु ॥
मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी ।
विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि ॥
अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं तत्वज्ञानार्थदर्शनम् ।
एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोऽन्यथा ॥
अर्थात्, श्रेष्ठता के अभिमान का अभाव, दम्भाचरण का अभाव, किसी भी प्राणी को किसी प्रकार भी न सताना, क्षमाभाव, मन-वाणी आदि की सरलता, श्रद्धा-भक्ति सहित गुरु की सेवा, बाहर-भीतर की शुद्धि अन्तःकरण की स्थिरता और मन-इन्द्रियों सहित शरीर का निग्रह; इस लोक और परलोक के सम्पूर्ण भोगों में आसक्ति का अभाव और अहंकार का भी अभाव, जन्म, मृत्यु, जरा और रोग आदि में दुःख और दोषों का बार-बार विचार करना; पुत्र, स्त्री, घर और धन आदि में आसक्ति का अभाव, ममता का न होना तथा प्रिय और अप्रिय की प्राप्ति में सदा ही चित्त का सम रहना; मुझ परमेश्वर में अनन्य योग द्वारा अव्यभिचारिणी भक्ति तथा एकान्त और शुद्ध देश में रहने का स्वभाव और विषयासक्त मनुष्यों के समुदाय में प्रेम का न होना; अध्यात्म ज्ञान में नित्य स्थिति और तत्वज्ञान के अर्थरूप परमात्मा को ही देखना- यह सब ज्ञान है और जो इसके विपरीत है वह अज्ञान है!
क्रमशः!
--डॉ. सत्यनारायण पाण्डेय