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सुप्रभातम्! जय भास्करः! ४८ :: सत्यनारायण पाण्डेय

सुप्रभातः सर्वेषां सुहृदयसज्जनानां कृते ये गीता-ज्ञान-यज्ञे संलग्नाः सन्ति. अद्य अक्षरब्रह्मयोगोनाम  अष्टमे अध्याये एव यात्रा भविष्यति!

प्रिय बंधुगण! 
इस अध्याय का मुख्य विषय अक्षर और ब्रह्म, क्रमशः भगवान् के सगुण और निर्गुण स्वरुप के वाचक तथा भगवान् के "ॐ"कार रूप अक्षर ब्रह्म का वर्णन ही है. इसी लिए तो इस अध्याय का नाम अक्षर ब्रह्म योग रखा गया है. भगवान् को जानने के रहस्य को भली भांति न समझ पाने के कारण अर्जुन इन्हीं विषयों की जानकारी के लिए भगवान् से प्रश्न करता हुआ कहता है--

किं तद्ब्रह्म किमध्यात्मं किं पुरुषोत्तम । 
अधिभूतं च किं प्रोक्तमधिदैवं किमुच्यते ॥
 अधियज्ञः कथं कोऽत्र देहेऽस्मिन्मधुसूदन । 
प्रयाणकाले च कथं ज्ञेयोऽसि नियतात्मभिः ॥

अर्थात्, अर्जुन ने कहा- हे पुरुषोत्तम! वह ब्रह्म क्या है? अध्यात्म क्या है? कर्म क्या है? अधिभूत नाम से क्या कहा गया है और अधिदैव किसको कहते हैं. हे मधुसूदन! यहाँ अधियज्ञ कौन है? और वह इस शरीर में कैसे है? तथा युक्त चित्त वाले पुरुषों द्वारा अंत समय में आप किस प्रकार जाने में जाते हैं.

अर्जुन के इन्हीं सात प्रश्नों में से भगवान् पहले ब्रह्म, अध्यात्म और कर्म विषयक तीन प्रश्नों का उत्तर इस प्रकार देते हैं--

अक्षरं ब्रह्म परमं स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते । 
भूतभावोद्भवकरो विसर्गः कर्मसंज्ञितः ॥ 

अर्थात्, श्री भगवान ने कहा- परम अक्षर 'ब्रह्म'है, अपना स्वरूप अर्थात जीवात्मा 'अध्यात्म'नाम से कहा जाता है तथा भूतों के भाव को उत्पन्न करने वाला जो त्याग है, वह 'कर्म'नाम से कहा गया है.

भागवान चौथे श्लोक में अधिभूत, अधिदैव और अधियज्ञ विषयक अर्जुन के प्रश्न का उत्तर देते हैं--

अधिभूतं क्षरो भावः पुरुषश्चाधिदैवतम्‌ । 
अधियज्ञोऽहमेवात्र देहे देहभृतां वर ॥ 

अर्थात्, उत्पत्ति-विनाश धर्म वाले सब पदार्थ अधिभूत हैं, हिरण्यमय पुरुष (जिसको शास्त्रों में सूत्रात्मा, हिरण्यगर्भ, प्रजापति, ब्रह्मा इत्यादि नामों से कहा गया है) अधिदैव है और हे देहधारियों में श्रेष्ठ अर्जुन! इस शरीर में मैं वासुदेव ही अन्तर्यामी रूप से अधियज्ञ हूँ.

अर्जुन के सातवें प्रश्न "प्रयाणकाले च कथं ज्ञेयोऽसि नियतात्मभिः" (अर्थात् अन्तकाल में नियतचित्त व्यक्ति के द्वारा आप किस प्रकार जाने जाते हैं) का उत्तर देते हुए भगवान् ने कहा है--

अंतकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम्‌ । 
यः प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशयः ॥ 
यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्‌ । 
तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः ॥ 

अर्थात्, जो पुरुष अंतकाल में भी मुझको ही स्मरण करता हुआ शरीर को त्याग कर जाता है, वह मेरे साक्षात स्वरूप को प्राप्त होता है. मनुष्य अंतकाल में जिस-जिसभाव को स्मरण करता हुआ शरीर त्याग करता है, उस-उस को ही प्राप्त होता है क्योंकि वह सदा उसी भाव से भावित रहा है.

तात्पर्य यह है कि अन्तकाल में मनुष्य जिसका भी स्मरण करते हुए शरीर त्याग करता (मरता) है, उसी स्वरुप को प्राप्त हो जाता है. ध्यातव्य है कि अन्तकाल में प्रायः वही भाव ध्यान में आते हैं जिसका जीवन में अधिक स्मरण किया गया होता है. अतः भगवतप्राप्ति की इच्छा रखने वाले हर मनुष्य को प्रारंभ से ही भगवान् के स्मरण का निरंतर अभ्यास करते रहना चाहिए. महाभारत के युद्ध के क्रम में दोनों सेनाओं के बीच रथ पर बैठे हुए अर्जुन के सामने युद्ध के सिवा कोई विकल्प नहीं था. ठीक उसी तरह जीवन संग्राम में भाग लेने वाले हम लोगों के लिए भी संघर्षरत होने के सिवा और कोई विकल्प शेष नहीं ही है. युद्ध में यह अनिश्चित रहता है कि कौन मारा जायेगा और कौन सुरक्षित बचेगा. ठीक उसी तरह हम मनुष्यों की भी मौत कब आ जाएगी यह सर्वथा अनिश्चित ही है. इसी लिए भगवान् अर्जुन को कहते हैं--

तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युद्ध च । 
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्‌ ॥ 

अर्थात्, तू सब समय में निरंतर मेरा स्मरण कर और युद्ध भी कर. इस प्रकार मुझमें अर्पण किए हुए मन-बुद्धि से युक्त होकर तू निःसंदेह मुझको ही प्राप्त होगा.

हम सांसारिक प्राणियों के लिए भी यहाँ सन्देश यही है कि अहर्निश ईश्वर का स्मरण करते हुए अपने दैनंदिन कार्यों एवं निर्धारित कर्मों के प्रति निष्काम भाव से रत रहें. इस तरह भगवतप्राप्ति सहजता पूर्वक निष्काम कर्म संपादन मात्र से ही संभव हो जाएगी. 

क्रमशः 

--डॉ सत्यनारायण पाण्डेय 


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