Quantcast
Channel: अनुशील
Viewing all articles
Browse latest Browse all 670

सुप्रभातम्! जय भास्करः! ४७ :: सत्यनारायण पाण्डेय

$
0
0


सुप्रभातः सर्वेषां सुहृदयसज्जनानां कृते ये गीता-ज्ञान-यज्ञे संलग्नाः सन्ति. अद्य ज्ञानविज्ञानयोगोनाम  सप्तमअध्याये एव यात्रा भविष्यति!

प्रिय बंधुगण!

आरम्भ में ही इस अध्याय के विवेच्य विषय पर संकेत देते हुए स्पष्ट कर दिया गया था कि यह अध्याय ज्ञान विज्ञान के विषय की व्याख्या के लिए कथित है. यहाँ मैं अपनी ओर से एक दृष्टान्त रखना चाहता हूँ-- १. मान लिया जाए हम सभी हृदय की संरचना को हम न जानते हुआ भी अहर्निश श्वास की प्रक्रिया से अहर्निश प्राणवायु ग्रहण करते हुए जीवंत रहते हैं.
२. ठीक इसी तरह कैमरे के मैकेनिज्म को न समझने वाला व्यक्ति भी प्रक्रिया के अनुरूप फोटोग्राफी कर लेता है.
ऐसे ही सृष्टि, प्रलय, कर्म बंधन, कर्म से मुक्ति, आत्मा परमात्मा, बंधन मोक्ष आदि विविध विषयों को भली प्रकार न समझता हुआ व्यक्ति भी अब तक के बताये गए निष्कामकर्मयोग सिद्धांत का भ्रमरहित होकर अनुसरण करता जाए तो भी उसे परम तत्व यानि परमात्मा में लीन होने की सहजता स्वतः प्राप्त हो जाती है.

फिर भी जिज्ञासा के अनुरूप चाहे हृदय के बारे में जानना हो, कैमरे के विषय में जानना हो अथवा आत्मा परमात्मा, कर्म, अकर्म, विकर्म-- जिस किसी विषय की जानकारी की इच्छा हो जाए तो तो ज्ञान और विज्ञान के माध्यम से यह सहज ही संभव है. इसी क्रम में भगवान् ने सातवें अध्याय में ज्ञान और विज्ञान की चर्चा के संकल्प के साथ यह  भी स्पष्ट कर दिया है--  हे अर्जुन! इस विज्ञान सहित ज्ञान को जान लेने के बाद तुम्हारे लिए कोई अन्य ज्ञातव्य वस्तु शेष रह ही नहीं जाएगी.

कल हमलोगों ने इसी अध्याय के १९वें श्लोक में यह जाना कि भगवान् वासुदेव ही सबकुछ हैं. इनके सिवा इस अनंत कोटि ब्रह्माण्ड में कुछ भी नहीं है, ऐसी मति वाले व्यक्ति संसार में दुर्लभ हैं. इसी अध्याय के तीसरे श्लोक में भगवान् ने अर्जुन को यह स्पष्ट कर दिया था कि हजारों हज़ार लोगों में कोई कोई सिद्धि लाभ के लिए प्रयत्नशील होता है, और प्रयत्न करने वालों में भी कोई कोई मुझे तात्विक दृष्टि से जान पाता है--
मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये ।
यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्वतः ॥

आज के सांसारिक मनुष्य गीता ज्ञान के प्रति बहुतायत में सजग नहीं हैं तो यह कोई आश्चर्य का विषय नहीं है. प्रयत्न करने वालों में भी कोई कोई ही परमेश्वर को तात्विक दृष्टि से जान पाते हैं, इस कथन से भी हम सबों को निराश नहीं होना चाहिए क्यूँकि इस गीता के अंतर्गत ही भगवान् की यह प्रतिज्ञा भी है--

तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम् ।
ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते ॥ १०/१०॥
अर्थात्, निरंतर मेरे ध्यान में लगे हुए, मुझे प्रेमपूर्वक भजने वाले भक्तों को मैं वह तत्त्वज्ञानरूप योग देता हूँ, जिससे वे मुझको ही प्राप्त होते हैं.

रामायण में भी इस तरह का उल्लेख है--
सोई जानही जेहि देई जनाई।
जानत तुम्हहि-तुम्हहि होइ जाई॥

इससे यह स्पष्ट है कि हमें ईश्वरबुद्धियुक्त हो कर परमात्मा का स्मरण करते हुए दैनंदिन निष्काम कर्मयोग का प्रतिपालन करते रहना चाहिए. परमात्मा तो स्वयं वैसी बुद्धि से जोड़ देने के लिए प्रतिज्ञाबद्ध हैं जिससे उन्हें सहज प्राप्त किया जा सकता है.

परमात्मा भी एक कुशल प्रशिक्षक की तरह अपने प्रशिक्षुओं को भले बुरे का, खाद्य और अखाद्य का, संग्रह और त्याग का, कर्म व् अकर्म का सुनियोजित ज्ञान उपलब्ध करा देते हैं. अब प्रशिक्षु के विवेक पर निर्भर है कि वह किसे अपनाता है.

यहाँ भगवान् उसी बात को २०वें से २४वें श्लोक तक कामना के वशीभूत अपनी अपनी प्रकृति के अनुसार कर्म और उपासना के प्रति आकृष्ट होने वाले लोगों की चर्चा करते हुए कहते हैं--

कामैस्तैस्तैर्हृतज्ञानाः प्रपद्यन्तेऽन्यदेवताः ।
तं तं नियममास्थाय प्रकृत्या नियताः स्वया ॥
यो यो यां यां तनुं भक्तः श्रद्धयार्चितुमिच्छति ।
तस्य तस्याचलां श्रद्धां तामेव विदधाम्यहम्‌ ॥
स तया श्रद्धया युक्तस्तस्याराधनमीहते ।
लभते च ततः कामान्मयैव विहितान्हि तान्‌ ॥
अन्तवत्तु फलं तेषां तद्भवत्यल्पमेधसाम्‌ ।
देवान्देवयजो यान्ति मद्भक्ता यान्ति मामपि ॥
अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धयः ।
परं भावमजानन्तो ममाव्ययमनुत्तमम्‌ ॥

अर्थात, भोगों की कामना द्वारा जिनका ज्ञान हरा जा चुका है, वे लोग अपने स्वभाव से प्रेरित होकर नियम को धारण करके अन्य देवताओं को भजते हैं. जो-जो सकाम भक्त जिस-जिस देवता के स्वरूप को श्रद्धा से पूजना चाहता है, उस-उस भक्त की श्रद्धा को मैं उसी देवता के प्रति स्थिर करता हूँ. वह पुरुष उस श्रद्धा से युक्त होकर उस देवता का पूजन करता है और उस देवता से मेरे द्वारा ही विधान किए हुए उन इच्छित भोगों को निःसंदेह प्राप्त करता है. परन्तु उन अल्प बुद्धिवालों का वह फल नाशवान है तथा वे देवताओं को पूजने वाले देवताओं को प्राप्त होते हैं और मेरे भक्त चाहे जैसे ही भजें, अन्त में वे मुझको ही प्राप्त होते हैं. बुद्धिहीन पुरुष मेरे अविनाशी परम भाव को न जानते हुए मन-इन्द्रियों से परे मुझ सच्चिदानन्दघन परमात्मा को मनुष्य की भाँति जन्मे व्यक्ति की तरह मानते हैं, जबकि मैं अजन्मा और अविनाशी हूँ.

ऊपर के अध्यायों में भी यह बात स्पष्ट कर दि गयी है कि हमें किसी भी परिस्थिति में निष्काम कर्म के प्रति सजग रहना ही है न कि कामनाओं के वशीभूत हो अधोगति को प्राप्त होना है. जहाँ हम कामनाओं के वशीभूत होते हैं, हमारी कामनाएं तो पूर्ण होती हैं लेकिन परमात्म तत्व की प्राप्ति नहीं होती. यहाँ किसी के मन में यह प्रश्न उठ सकता है कि जब भगवान् दया के सागर कहलाते हैं और जिस किसी प्रकार से भी "भाव कुभाव अनख आलसहूँ, नाम जपत मंगल दिशि दसहूँ"उन्हें
भजा जाए, वे अपने स्वरुप की प्राप्ति अर्थात् अपनी कृपा उन सब पर करते हैं फिर भी लोग अहैतुकी कृपा करने वाले उस परमात्मा का भजन क्यूँ नहीं करते !! इसका उत्तर २४वें श्लोक में स्पष्ट दिया गया है. और २७वें व २८वें श्लोक भगवान् कहते हैं-- हे भरतवंशी अर्जुन! इस संसार में जो प्राणी इर्ष्या और द्वेष से उत्पन्न सुख दुःख आदि द्वन्द मोह के कारण अत्यंत अज्ञता को प्राप्त हो रहे हैं वे सहज ढंग से मुझे समझने में समर्थ नहीं हो पाते. अतः ऐसे भ्रम की निवृत्ति के लिए निष्काम भाव से श्रेष्ठ कर्मों का आचरण करने वाले जिन पुरुषों के पाप नष्ट हो जाते हैं वैसे ही लोग राग द्वेष से उत्पन्न द्वन्द रुपी मोह से मुक्त होकर दृढ निश्चय के साथ किसी भी परिस्थिति में मुझे ही भजते हुए मुझे ही प्राप्त होते हैं.

इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत । 
सर्वभूतानि सम्मोहं सर्गे यान्ति परन्तप ॥ 
येषां त्वन्तगतं पापं जनानां पुण्यकर्मणाम्‌ । 
ते द्वन्द्वमोहनिर्मुक्ता भजन्ते मां दृढव्रताः ॥ 

यहाँ भी निष्काम भाव से श्रेष्ठ कर्मों के आचरण की प्रतिबद्धता ही दोहराई गयी है. इससे गीता के प्रमुख रूप से कर्मयोग शास्त्र कहा जाना ही सार्थक है. 

अंतिम २९ एवं ३०वें श्लोक में भगवान् अर्जुन से कहते हैं कि जो पुरुष अधिभूत और अधिदैव के सहित तथा अधियज्ञ के सहित मुझे अन्तकाल में भी जानते हैं वे युक्तियुक्त वाले पुरुष मुझे जानते हैं अर्थात मुझे प्राप्त हो जाते हैं. जो मेरे शरण होकर जरा और मरण से छूटने के लिए यत्न करते हैं वे पुरुष उस ब्रह्म को, सम्पूर्ण अध्यात्म को एवं सम्पूर्ण कर्म को जानने में समर्थ हो जाते हैं--

जरामरणमोक्षाय मामाश्रित्य यतन्ति ये । 
ते ब्रह्म तद्विदुः कृत्स्नमध्यात्मं कर्म चाखिलम्‌ ॥ 
साधिभूताधिदैवं मां साधियज्ञं च ये विदुः । 
प्रयाणकालेऽपि च मां ते विदुर्युक्तचेतसः ॥ 

यहाँ इन दो श्लोकों में अधिभूत, अधिदैव, अधियज्ञ, अध्यात्म और कर्म व्याख्येय पद हैं जिसकी व्याख्या अक्षर ब्रह्म योगनाम आठवें अध्याय के आरम्भ में ही दी गयी है, जिसे हम क्रमशः अगले अध्याय में जानेंगे.
यहाँ ज्ञान विज्ञान योग सातवें अध्याय की यात्रा पूर्ण हुई.

क्रमशः

--डॉ. सत्यनारायण पाण्डेय 


Viewing all articles
Browse latest Browse all 670

Trending Articles



<script src="https://jsc.adskeeper.com/r/s/rssing.com.1596347.js" async> </script>