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Channel: अनुशील
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परछाईयाँ रह जाती हैं

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अपने आँचल में हमने
तमाम उदासियाँ
बिखरी हुई
आगत-विगत अनगिन ख़ामोशियाँ
समेट रखीं हैं


हम
समय की धार में मिल
खो जाने वाली
इकाइयाँ ही तो हैं 


हमसे
हर क्षण
कितना कुछ
खो ही तो जाता है 


मुस्कानें खो जाती हैं
सपने जुदा हो जाते हैं
ज़िन्दगी कई बार ज़िन्दगी नहीं रहती
दामन में सिमटे सारे उद्गार विदा हो लेते हैं


ऐसे उत्कट पलों में--


ख़ामोशियाँ
आकाश हो जाती हैं
इस तरह आत्मिक उद्गारें
खो चुके अव्ययों के जरा पास हो पाती हैं 


आँचल
स्वयं बादल हो जाता है 


कितनी ही बूंदों का आगार वह 


नमी तो होनी ही है
सर्वत्र सब प्रांजल हो जाता है 


नियत क्लिष्टताएं
धुल कर बह जाती हैं 


आँखों में
खो चुके सपनों की
परछाईयाँ रह जाती हैं 





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