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सुप्रभातम्! जय भास्करः! ४४ :: सत्यनारायण पाण्डेय

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सुप्रभातः सर्वेषां सुहृदयानां सज्जनानां कृते ये गीता-ज्ञान-यज्ञे संलग्नाः सन्ति। अद्यापि आत्मसंयमयोगोनाम  षष्टअध्याये एव यात्रा भविष्यति!


प्रिय बंधुगण! 

कल हम लोगों ने शक्तिशाली मन को वश में करने की असम्भवता रूप अर्जुन की बातों को जाना. अर्जुन ने कहा है-- यह मन अत्यंत चंचल है और इसे वश में करना उसी प्रकार दुष्कर है जैसे हवा को बाँधना. भगवान् श्री कृष्ण ने भी अर्जुन की इन बातों का सहज समर्थन करते हुए कहा--

श्रीभगवानुवाच असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम्‌ । 

अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते ॥ 

असंयतात्मना योगो दुष्प्राप इति मे मतिः । 

वश्यात्मना तु यतता शक्योऽवाप्तुमुपायतः ॥ 

अर्थात, श्री भगवान बोले- हे महाबाहो! निःसंदेह मन चंचल और कठिनता से वश में होने वाला है. परन्तु हे कुंतीपुत्र अर्जुन! यह अभ्यास और वैराग्य से वश में होता है. जिसका मन वश में किया हुआ नहीं है, ऐसे पुरुष द्वारा योग दुष्प्राप्य है और वश में किए हुए मन वाले प्रयत्नशील पुरुष द्वारा साधन से उसका प्राप्त होना सहज है. यहाँ तक यह स्पष्ट हो गया है कि मन बलवान भी है, चंचल भी है, निरंतर क्रियाशील भी, मगर उसे युक्तिपूर्वक अभ्यास एवं वैराग्य द्वारा नियंत्रित किया जा सकता है और यह आवश्यक भी है क्यूंकि मन को वश में किये बिना हम स्थिरतापूर्वक कोई भी कार्य नहीं कर सकते. हमारा मन एक क्षण में लाखों मीलों की दूरी तय कर लौट आता है, यह हम सभी अपने क्षण क्षण के अनुभव से जानते ही हैं. जैसे किसी ने जिस किसी स्थान का भी सैर कर लिया है, कहीं भी होते हुए, कैसी भी व्यस्तता क्यूँ न हो, मन एक क्षण में वहां तक की यात्रा कर, सब यथावत अनुभव कर लौट भी आता है. अब रही ऐसे बलशाली मन को वश में करने की बात तो उसके लिए नित्य अभ्यास एवं अनावश्यक व अहितकर वस्तुओं से वैराग्य भाव का अनुसरण किया जाना आवश्यक है. अभ्यास के बल पर अदना व्यक्ति भी कुछ भी करने में समर्थ हो सकता है, इसमें कोई संदेह नहीं. कर्णम मल्लेश्वरी सिडनी ओलंपिक की भारोत्तोलन प्रतियोगिता में कांस्य पदक जीत कर विश्व चैंपियन बनी. उसने भी अभ्यास के द्वारा ही क्रमशः इस मुकाम को प्राप्त किया. हम सब भी इस बलवान चंचल मन को वश में करना चाहें तो गीता में बताई गयी रीती से अभ्यास द्वारा निःसंदेह सफल हो सकते हैं. यह भी सत्य है कि मन दर्पण की तरह स्वच्छ होता है. जैसे दर्पण के सामने जो वस्तु लायी जाती है, उसी का विम्ब उसमें दिखायी पड़ता है, जबकि दर्पण की अपनी कोई इच्छा नहीं होती. हमारा ही यह कर्तव्य बनता है कि मन को वैसी चीज़ों से अलग रखने का अभ्यास बनाएं जो अहितकर हों. यह स्वाभाविक रूप से सिद्ध है कि मन कभी स्थिर नहीं रहता अतः उसे अच्छी आदतों से जोड़े रखना आवश्यक है. मन को कुछ न कुछ करने का अवलंब अवश्य चाहिए. अतः उसे सद्चिन्तन एवं सद्कार्य में निरंतर लगाये रखना चाहिए. 

अर्जुन पुनः जानना चाहता है कि योगमार्ग में चलता हुआ व्यक्ति अगर सिद्धि को प्राप्त न कर सका तो उसकी स्थिति क्या होगी. कहीं वह योगभ्रष्ट हुआ व्यक्ति दुर्गति को तो प्राप्त नहीं हो जायेगा. 

अर्जुन उवाच अयतिः श्रद्धयोपेतो योगाच्चलितमानसः । 
अप्राप्य योगसंसिद्धिं कां गतिं कृष्ण गच्छति ॥ 
कच्चिन्नोभयविभ्रष्टश्छिन्नाभ्रमिव नश्यति । 
अप्रतिष्ठो महाबाहो विमूढो ब्रह्मणः पथि ॥
अर्जुन बोले- हे श्रीकृष्ण! जो योग में श्रद्धा रखने वाला है, किन्तु संयमी नहीं है, इस कारण जिसका मन अन्तकाल में योग से विचलित हो गया है, ऐसा साधक योग की सिद्धि को न प्राप्त होकर किस गति को प्राप्त होता है. हे महाबाहो! क्या वह भगवत्प्राप्ति के मार्ग में मोहित और आश्रयरहित पुरुष छिन्न-भिन्न बादल की भाँति दोनों ओर से भ्रष्ट होकर नष्ट तो नहीं हो जाता? 

भगवान उसके संशय को दूर करते हुए स्पष्ट करते हैं कि कल्याण मार्ग पर चलने वाला व्यक्ति कभी दुर्गति को प्राप्त नहीं होता. 

पार्थ नैवेह नामुत्र विनाशस्तस्य विद्यते । 
न हि कल्याणकृत्कश्चिद्दुर्गतिं तात गच्छति ॥ 
श्री भगवान बोले- हे पार्थ! उस पुरुष का न तो इस लोक में नाश होता है और न परलोक में ही क्योंकि आत्मोद्धार के लिए कर्म करने वाला किसी भी प्रकार अहित होना नामुमकिन है. 

साथ ही वे यह भी स्पष्ट कर देते हैं कि योगमार्ग में चलते हुए व्यक्ति का उपलब्द्ध ज्ञान जन्मान्तर में भी संचित रहता है और वह दूसरे जन्म में आगे की यात्रा में संलग्न हो जाता है. 

तत्र तं बुद्धिसंयोगं लभते पौर्वदेहिकम्‌ । 
यतते च ततो भूयः संसिद्धौ कुरुनन्दन ॥ 
अर्थात, वहाँ उस पहले शरीर में संग्रह किए हुए बुद्धि-संयोग को अनायास ही प्राप्त हो जाता है और हे कुरुनन्दन! उसके प्रभाव से वह फिर परमात्मा की प्राप्तिरूप सिद्धि के लिए पहले से भी बढ़कर प्रयत्न करता है. 

इस अध्याय के समापन में भगवान् स्पष्ट करते हैं कि योगी (निष्काम कर्मयोगी) मुझे ज्ञानी एवं तपस्वी से भी अधिक प्रिय हैं और उन सबों में जो अंतर्मन से मुझे भजते हैं वे मेरी दृष्टि में श्रेष्ठतम हैं.

तपस्विभ्योऽधिको योगी ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिकः । 
कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जुन ॥ 
योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना । 
श्रद्धावान्भजते यो मां स मे युक्ततमो मतः ॥ 
अर्थात, योगी तपस्वियों से श्रेष्ठ है, शास्त्रज्ञानियों से भी श्रेष्ठ माना गया है और सकाम कर्म करने वालों से भी योगी श्रेष्ठ है। इससे हे अर्जुन! तू योगी हो. सम्पूर्ण योगियों में भी जो श्रद्धावान योगी मुझमें लगे हुए अन्तरात्मा से मुझको निरन्तर भजता है, वह योगी मुझे परम श्रेष्ठ मान्य है.

अभिप्राय यह है कि आदर्श को सामने रख कर चलना, तदनुरूप होना होता है और जब हमारे आदर्श स्वयं ईश्वर होंगे तो भटकाव की कहीं कोई गुंजाईश ही नहीं होगी. हमारे सारे कार्य मुक्तिमार्ग के अनुरूप ही होंगे इसमें कोई संदेह नहीं.

कल हमारी यात्रा ज्ञानविज्ञान योग नाम सातवें अध्याय में प्रवेश करेगी.

क्रमशः 

--डॉ. सत्यनारायण पाण्डेय 


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