सुप्रभातः सर्वेषां सुहृदयानां सज्जनानां कृते ये गीता-ज्ञान-यज्ञे संलग्नाः सन्ति। अद्यापि आत्मसंयमयोगोनाम षष्टअध्याये एव यात्रा भविष्यति!
प्रिय बंधुगण!
श्रीमद्भगवद्गीता में कई जगहों पर मन, चित्त और आत्मा एक ही अर्थ को बतलाते से प्रतीत होते हैं. पर स्थान विशेष और यथासमय इसके अलग अलग स्वरूपों पर भी हम चर्चा करेंगे किन्तु यहाँ विशेष रूप से पाँच ज्ञानेन्द्रियों के अतिरिक्त छठे इन्द्रिय के रूप में परिगणित मन को हमें विशेष रूप से समझना है. यह मन अत्यंत बलवान होते हुए चंचल और तीव्र गति वाला है. यह विद्युत् की तरह शक्तिसंपन्न है, जैसे विद्युत् को नियंत्रित रूप में उपयोग करते हुए हम पंखे की हवा, प्रकाश, विविध यंत्रों का सञ्चालन कर लाभान्वित होते हैं, परन्तु थोड़ी सी असावधानी से वही विद्युत् जानलेवा भी साबित हो सकती है. ठीक इसी तरह हमारा यह शक्तिशाली मन ही हमारे बंधन या मुक्ति का कारण बनता है-- "मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः", यह उपनिषद वाक्य भी इसी तथ्य का समर्थन करता है. यही कारण है कि ऋगवेद काल से ही ऐसे बलशाली मन के शिव संकल्प युक्त होने की कामना प्राचीन ऋषियों ने भी की थी-- "तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु"!
छठे अध्याय का उद्देश्य मुख्य रूप से मन को एकाग्र करने की क्रिया की ओर संकेत करना ही है-- "तत्रैकाग्रं मनः कृत्वा यतचित्तेन्द्रियक्रियः"! योगाभ्यास के द्वारा मन को इस प्रकार नियंत्रित करना है कि वह वायुरहित स्थान में दीपक के लौ की तरह बिलकुल स्थिर दिखे तभी उस नियंत्रित बलशाली मन का उपयोग आत्मा के वशीभूत करते हुए हम अच्छे कार्यों में लगा पाएंगे. जैसा कि इसी अध्याय के उन्नीसवें श्लोक में भगवान् कृष्ण ने अर्जुन को स्पष्ट किया है.
यथा दीपो निवातस्थो नेंगते सोपमा स्मृता ।
योगिनो यतचित्तस्य युञ्जतो योगमात्मनः ॥
अर्थात, जिस प्रकार वायुरहित स्थान में स्थित दीपक चलायमान नहीं होता, वैसी ही परमात्मा के ध्यान में लगे हुए योगी के जीते हुए चित्त की स्थिति कही गई है.
ऐसी स्थिति अनायास ही संभव नहीं है, इसके लिए अभ्यास आवश्यक है, इसीलिए इसी अध्याय के २५वें एवं २६वें श्लोक में मन को धीरे धीरे नियंत्रित कर आत्मा से जोड़ने हेतु प्रेरित किया गया है.
शनैः शनैरुपरमेद्बुद्धया धृतिगृहीतया।
आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किंचिदपि चिन्तयेत् ॥
यतो यतो निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम् ।
ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत् ॥
अर्थात, क्रम-क्रम से अभ्यास करता हुआ उपरति को प्राप्त हो तथा धैर्ययुक्त बुद्धि द्वारा मन को परमात्मा में स्थित करके परमात्मा के सिवा और कुछ भी चिन्तन न करे. यह चंचल मन जिस-जिस शब्दादि विषय के निमित्त से संसार में विचरता है, उस-उस विषय से रोककर इसे बार-बार परमात्मा में ही निरुद्ध करना है.
मन को नियंत्रित करना असंभव भी नहीं है पर शर्त यह है कि नित्य नियमित अभ्यास हो. अर्जुन के मन में भी यह सहज प्रश्न उठता है कि जिस योग की चर्चा की गयी है उसमें स्थिरता नहीं दिखाई पड़ती क्यूँकि मन बड़ा चंचल होता है जो बलपूर्वक इन्द्रियों को मथ डालता है. ऐसे मन को वश में करना बड़ा दुष्कर प्रतीत हो रहा है.
अर्जुन उवाच योऽयं योगस्त्वया प्रोक्तः साम्येन मधुसूदन ।
एतस्याहं न पश्यामि चञ्चलत्वात्स्थितिं स्थिराम् ॥
चञ्चलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम् ।
तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम् ॥
अर्थात, अर्जुन बोले- हे मधुसूदन! जो यह योग आपने समभाव से कहा है, मन के चंचल होने से मैं इसकी नित्य स्थिति को नहीं देखता हूँ. क्योंकि हे श्रीकृष्ण! यह मन बड़ा चंचल, प्रमथन स्वभाव वाला, बड़ा दृढ़ और बलवान है। इसलिए उसको वश में करना मैं वायु को रोकने की भाँति अत्यन्त दुष्कर मानता हूँ.
क्रमशः
--डॉ सत्यनारायण पाण्डेय
सुप्रभातः सर्वेषां सुहृदयानां सज्जनानां कृते ये गीता-ज्ञान-यज्ञे संलग्नाः सन्ति। अद्यापि आत्मसंयमयोगोनाम षष्टअध्याये एव यात्रा भविष्यति!
श्रीमद्भगवद्गीता में कई जगहों पर मन, चित्त और आत्मा एक ही अर्थ को बतलाते से प्रतीत होते हैं. पर स्थान विशेष और यथासमय इसके अलग अलग स्वरूपों पर भी हम चर्चा करेंगे किन्तु यहाँ विशेष रूप से पाँच ज्ञानेन्द्रियों के अतिरिक्त छठे इन्द्रिय के रूप में परिगणित मन को हमें विशेष रूप से समझना है. यह मन अत्यंत बलवान होते हुए चंचल और तीव्र गति वाला है. यह विद्युत् की तरह शक्तिसंपन्न है, जैसे विद्युत् को नियंत्रित रूप में उपयोग करते हुए हम पंखे की हवा, प्रकाश, विविध यंत्रों का सञ्चालन कर लाभान्वित होते हैं, परन्तु थोड़ी सी असावधानी से वही विद्युत् जानलेवा भी साबित हो सकती है. ठीक इसी तरह हमारा यह शक्तिशाली मन ही हमारे बंधन या मुक्ति का कारण बनता है-- "मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः", यह उपनिषद वाक्य भी इसी तथ्य का समर्थन करता है. यही कारण है कि ऋगवेद काल से ही ऐसे बलशाली मन के शिव संकल्प युक्त होने की कामना प्राचीन ऋषियों ने भी की थी-- "तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु"!
छठे अध्याय का उद्देश्य मुख्य रूप से मन को एकाग्र करने की क्रिया की ओर संकेत करना ही है-- "तत्रैकाग्रं मनः कृत्वा यतचित्तेन्द्रियक्रियः"! योगाभ्यास के द्वारा मन को इस प्रकार नियंत्रित करना है कि वह वायुरहित स्थान में दीपक के लौ की तरह बिलकुल स्थिर दिखे तभी उस नियंत्रित बलशाली मन का उपयोग आत्मा के वशीभूत करते हुए हम अच्छे कार्यों में लगा पाएंगे. जैसा कि इसी अध्याय के उन्नीसवें श्लोक में भगवान् कृष्ण ने अर्जुन को स्पष्ट किया है.
यथा दीपो निवातस्थो नेंगते सोपमा स्मृता ।
योगिनो यतचित्तस्य युञ्जतो योगमात्मनः ॥
अर्थात, जिस प्रकार वायुरहित स्थान में स्थित दीपक चलायमान नहीं होता, वैसी ही परमात्मा के ध्यान में लगे हुए योगी के जीते हुए चित्त की स्थिति कही गई है.
ऐसी स्थिति अनायास ही संभव नहीं है, इसके लिए अभ्यास आवश्यक है, इसीलिए इसी अध्याय के २५वें एवं २६वें श्लोक में मन को धीरे धीरे नियंत्रित कर आत्मा से जोड़ने हेतु प्रेरित किया गया है.
शनैः शनैरुपरमेद्बुद्धया धृतिगृहीतया।
आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किंचिदपि चिन्तयेत् ॥
यतो यतो निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम् ।
ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत् ॥
अर्थात, क्रम-क्रम से अभ्यास करता हुआ उपरति को प्राप्त हो तथा धैर्ययुक्त बुद्धि द्वारा मन को परमात्मा में स्थित करके परमात्मा के सिवा और कुछ भी चिन्तन न करे. यह चंचल मन जिस-जिस शब्दादि विषय के निमित्त से संसार में विचरता है, उस-उस विषय से रोककर इसे बार-बार परमात्मा में ही निरुद्ध करना है.
मन को नियंत्रित करना असंभव भी नहीं है पर शर्त यह है कि नित्य नियमित अभ्यास हो. अर्जुन के मन में भी यह सहज प्रश्न उठता है कि जिस योग की चर्चा की गयी है उसमें स्थिरता नहीं दिखाई पड़ती क्यूँकि मन बड़ा चंचल होता है जो बलपूर्वक इन्द्रियों को मथ डालता है. ऐसे मन को वश में करना बड़ा दुष्कर प्रतीत हो रहा है.
अर्जुन उवाच योऽयं योगस्त्वया प्रोक्तः साम्येन मधुसूदन ।
एतस्याहं न पश्यामि चञ्चलत्वात्स्थितिं स्थिराम् ॥
चञ्चलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम् ।
तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम् ॥
अर्थात, अर्जुन बोले- हे मधुसूदन! जो यह योग आपने समभाव से कहा है, मन के चंचल होने से मैं इसकी नित्य स्थिति को नहीं देखता हूँ. क्योंकि हे श्रीकृष्ण! यह मन बड़ा चंचल, प्रमथन स्वभाव वाला, बड़ा दृढ़ और बलवान है। इसलिए उसको वश में करना मैं वायु को रोकने की भाँति अत्यन्त दुष्कर मानता हूँ.
क्रमशः
--डॉ सत्यनारायण पाण्डेय