सुप्रभातः सर्वेषां सुहृदयानां सज्जनानां कृते ये गीता-ज्ञान-यज्ञे संलग्नाः सन्ति। अद्यापि आत्मसंयमयोगोनाम षष्टअध्याये एव यात्रा भविष्यति!
प्रिय बंधुगण!
मन के संयमन के उपायों का विश्लेषण ही इस अध्याय का मुख्य विषय है. आरम्भ से अबतक के विवेचन से यह स्पष्ट है कि निष्काम कर्मयोग ही गीता का मुख्य प्रतिपाद्य विषय है. यह भी स्पष्ट हो चूका है कि कर्म न करने वाले की शरीर यात्रा भी संभव नहीं , "शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्ध्येदकर्मणः "३/८, कर्म न करने की दृढ़ता से बैठने वाले व्यक्ति को भी प्रकृति बलपूर्वक कर्म रत कर ही देती है, "कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणै"३/५; इस प्रकार स्पष्ट है कि करना ही एकमात्र विकल्प रह जाता है. शर्त यही है कि हम स्वाध्याय एवं योग द्वारा मन को नियंत्रित करते हुए कर्म सिद्धांत के अनुरूप चलना सीख लें. और यह कठिन भी नहीं है. मात्र किंचित अभ्यास की आवश्यकता है. इसी क्रम में इस अध्याय के १० वें, ११ वें एवं १२ वें श्लोक में भगवान् अर्जुन से कहते हैं--
योगी युञ्जीत सततमात्मानं रहसि स्थितः । एकाकी यतचित्तात्मा निराशीरपरिग्रहः ॥ शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिरमासनमात्मनः । नात्युच्छ्रितं नातिनीचं चैलाजिनकुशोत्तरम् ॥तत्रैकाग्रं मनः कृत्वा यतचित्तेन्द्रियक्रियः । उपविश्यासने युञ्ज्याद्योगमात्मविशुद्धये ॥ अर्थात, आशारहित और संग्रहरहित योगी अकेला ही एकांत स्थान में स्थित होकर आत्मा को निरंतर परमात्मा में लगाए, शुद्ध भूमि में क्रमशः कुशा, मृगछाला और वस्त्र बिछा कर, आसन पर बैठकर चित्त और इन्द्रियों की क्रियाओं को वश में रखते हुए मन को एकाग्र करके अन्तःकरण की शुद्धि के लिए योग का अभ्यास करे. यहाँ जनसामान्य के मन में यह भाव आना अस्वाभिक नहीं होगा कि आज के इस भाग दौड़ की ज़िन्दगी में किसके पास इतना अवकाश और साधन है कि ऐसे अभ्यास में संलग्न हो सके. ऐसे लोगों के लिए यह सरल उपाय भी हो सकता है कि त्रिकाल संध्या के लिए अलग से समय निकाल पाना कठिन हो तो इस क्रम का भी अभ्यास कर देखना चाहिए-- हम चाहें या न चाहें, प्रातःकाल नित्य जागना और रात्रि में शयन करना, यह तो स्वाभाविक रूप में प्रत्येक के साथ निश्चित रूप से जुड़ा हुआ है ही. तो क्यूँ न हम प्रातःकाल जागने के बाद उस परमात्मा को स्मरण करते हुए धन्यवाद दें जिसने हमें यह अनमोल जीवन प्रदान किया है और दिन भर के क्रिया क्लापों की योजना भी मन ही मन प्रारूपित कर लें एवं परमात्म बुद्धि के साथ नित्य क्रिया से निवृत्त हो अपने काम में लग जाए. रात्रिकाल में बिछावन पर जाने के बाद थोड़े समय के लिए दिन भर के कार्यों का मूल्यांकन करें. यदि कोई निषिद्ध कर्म हो गया हो तो मन की डायरी में उसे अंकित करते हुए भविष्य में उसकी पुनरावृत्ति न हो, इसका संकल्प लें. यह क्रम भी अगर निरंतर चलता रहे तो भी ऊपर के श्लोकों में निर्देशित ध्यान के ही फल प्राप्त होंगे. इसी को स्पष्ट करते हुए १५वें श्लोक में भगवान् अर्जुन से कहते हैं-- इस प्रकार मन को नियमित करते हुए आत्मा से जोड़ता हुआ व्यक्ति ही परम शान्ति एवं परम निर्वाण रूप मेरे स्थान को प्राप्त कर लेता है.
युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी नियतमानसः । शान्तिं निर्वाणपरमां मत्संस्थामधिगच्छति ॥
योगाभ्यास को कठिन मान कर उससे दूर रहने वालों के लिए भी १६वें एवं १७ वें श्लोक में भगवान् ने स्पष्ट किया है कि जिस योग को मनुष्य दुखदायी और दुर्गम समझ बैठा है वह वास्तव में अत्यंत सहज एवं दुःख का हरण करने वाला है. उस सहजयोग की प्राप्ति के लिए भोजन, शयन, आहार-विहार की युक्तियुक्तता का ध्यान ही तो रखना है. यथा--
नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति न चैकान्तमनश्नतः । न चाति स्वप्नशीलस्य जाग्रतो नैव चार्जुन ॥ युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु । युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा ॥
अर्थात, हे अर्जुन! यह योग न तो बहुत खाने वाले का, न बिलकुल न खाने वाले का, न बहुत शयन करने के स्वभाव वाले का और न सदा जागने वाले का ही सिद्ध होता है. दुःखों का नाश करने वाला योग तो यथायोग्य आहार-विहार करने वाले का, कर्मों में यथायोग्य चेष्टा करने वाले का और यथायोग्य सोने तथा जागने वाले का ही सिद्ध होता है.
कितनी सहज सुगम सी बात है, बस अनुभूति एवं व्यवहार में औचित्य का ध्यान तो रखना ही पड़ता है. युक्तियुक्तता से भी यही अभिप्राय है. लवण उचित मात्रा में प्रयुक्त होने पर स्वाद बना देता है और मात्रा की कमी या अधिकता से स्वाद बिगड़ जाता है. हमें जीवन में भी इसी युक्तियुक्तता का पग-पग पर ध्यान रखना है.
क्रमशः
--डॉ. सत्यनारायण पाण्डेय
योगी युञ्जीत सततमात्मानं रहसि स्थितः ।
एकाकी यतचित्तात्मा निराशीरपरिग्रहः ॥
शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिरमासनमात्मनः ।
नात्युच्छ्रितं नातिनीचं चैलाजिनकुशोत्तरम् ॥
तत्रैकाग्रं मनः कृत्वा यतचित्तेन्द्रियक्रियः ।
उपविश्यासने युञ्ज्याद्योगमात्मविशुद्धये ॥
अर्थात, आशारहित और संग्रहरहित योगी अकेला ही एकांत स्थान में स्थित होकर आत्मा को निरंतर परमात्मा में लगाए, शुद्ध भूमि में क्रमशः कुशा, मृगछाला और वस्त्र बिछा कर, आसन पर बैठकर चित्त और इन्द्रियों की क्रियाओं को वश में रखते हुए मन को एकाग्र करके अन्तःकरण की शुद्धि के लिए योग का अभ्यास करे.
यहाँ जनसामान्य के मन में यह भाव आना अस्वाभिक नहीं होगा कि आज के इस भाग दौड़ की ज़िन्दगी में किसके पास इतना अवकाश और साधन है कि ऐसे अभ्यास में संलग्न हो सके. ऐसे लोगों के लिए यह सरल उपाय भी हो सकता है कि त्रिकाल संध्या के लिए अलग से समय निकाल पाना कठिन हो तो इस क्रम का भी अभ्यास कर देखना चाहिए--
हम चाहें या न चाहें, प्रातःकाल नित्य जागना और रात्रि में शयन करना, यह तो स्वाभाविक रूप में प्रत्येक के साथ निश्चित रूप से जुड़ा हुआ है ही. तो क्यूँ न हम प्रातःकाल जागने के बाद उस परमात्मा को स्मरण करते हुए धन्यवाद दें जिसने हमें यह अनमोल जीवन प्रदान किया है और दिन भर के क्रिया क्लापों की योजना भी मन ही मन प्रारूपित कर लें एवं परमात्म बुद्धि के साथ नित्य क्रिया से निवृत्त हो अपने काम में लग जाए. रात्रिकाल में बिछावन पर जाने के बाद थोड़े समय के लिए दिन भर के कार्यों का मूल्यांकन करें. यदि कोई निषिद्ध कर्म हो गया हो तो मन की डायरी में उसे अंकित करते हुए भविष्य में उसकी पुनरावृत्ति न हो, इसका संकल्प लें. यह क्रम भी अगर निरंतर चलता रहे तो भी ऊपर के श्लोकों में निर्देशित ध्यान के ही फल प्राप्त होंगे. इसी को स्पष्ट करते हुए १५वें श्लोक में भगवान् अर्जुन से कहते हैं-- इस प्रकार मन को नियमित करते हुए आत्मा से जोड़ता हुआ व्यक्ति ही परम शान्ति एवं परम निर्वाण रूप मेरे स्थान को प्राप्त कर लेता है.
युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी नियतमानसः ।
शान्तिं निर्वाणपरमां मत्संस्थामधिगच्छति ॥
योगाभ्यास को कठिन मान कर उससे दूर रहने वालों के लिए भी १६वें एवं १७ वें श्लोक में भगवान् ने स्पष्ट किया है कि जिस योग को मनुष्य दुखदायी और दुर्गम समझ बैठा है वह वास्तव में अत्यंत सहज एवं दुःख का हरण करने वाला है. उस सहजयोग की प्राप्ति के लिए भोजन, शयन, आहार-विहार की युक्तियुक्तता का ध्यान ही तो रखना है. यथा--
नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति न चैकान्तमनश्नतः ।
न चाति स्वप्नशीलस्य जाग्रतो नैव चार्जुन ॥
युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु ।
युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा ॥
अर्थात, हे अर्जुन! यह योग न तो बहुत खाने वाले का, न बिलकुल न खाने वाले का, न बहुत शयन करने के स्वभाव वाले का और न सदा जागने वाले का ही सिद्ध होता है. दुःखों का नाश करने वाला योग तो यथायोग्य आहार-विहार करने वाले का, कर्मों में यथायोग्य चेष्टा करने वाले का और यथायोग्य सोने तथा जागने वाले का ही सिद्ध होता है.
कितनी सहज सुगम सी बात है, बस अनुभूति एवं व्यवहार में औचित्य का ध्यान तो रखना ही पड़ता है. युक्तियुक्तता से भी यही अभिप्राय है. लवण उचित मात्रा में प्रयुक्त होने पर स्वाद बना देता है और मात्रा की कमी या अधिकता से स्वाद बिगड़ जाता है. हमें जीवन में भी इसी युक्तियुक्तता का पग-पग पर ध्यान रखना है.
क्रमशः
--डॉ. सत्यनारायण पाण्डेय