कैसी विडंबना है
जीना होता है
दुःख
घूँट-घूँट पीना होता है
पीते-पीते
पीड़ा जीते-जीते
अभ्यस्त हो जाते हैं हम
न घटते हुए भी
न घटने वाले दुःख के
घट जाने का
मिथ्याभास होता है
जहाँ तत्वतः असहाय होते हैं
वहां समझावन के
कितने ही विकल्प
गढ़ लिए जाते हैं
यूँ
जीते रह पाना
सायास ही तो होता है
कि
आत्मसात करना होता है
घटित को
स्वीकारनी होती है
जो जैसी है ज़िन्दगी
विकल्प नहीं होता न कोई
सो समझावन के
कितने ही विकल्प गढ़ लिए जाते हैं
नींद में घटित होता है
स्वप्न सा जीवन
जागती आँखों की धुँध से होकर
गुजरता है
अर्थ समर्थ कोई
उसी
ज़रा सी उजास में
कुछ संकल्प पढ़ लिए जाते हैं
जीने के लिए
अपने माथे कुछ दोष-दंश मढ़ लिए जाते हैं.