कहना मुमकिन नहीं ही है
सो लिख जाती हैं बातें
कई बार शब्दों को
अपना मन सौंप देना
ज़रूरी सा होता है
कि
खुले वह शब्दों में
तो ही तो
संभव हो सकेगा
मन के चोटों का भी उपचार.
शब्द ब्रह्म हैं
सच है
पर कई बार
शब्द बड़े निरीह भी होते हैं
उन्हें भाव सौंपना
राख में जीवन खोजने सा
दुर्गम होता है
फिर भी
हम जानते ही हैं
खोजते ही रहना है खो चुकी बातों को
छीन गए सौगातों को
भाव
शब्द में ढ़लने ही हैं
दुनियावी कारोबार चलते रहने हैं
चलने ही हैं.
जैसे
राख में आग
अवशेषों सी
बची होती है
वैसे ही
अल्पविराम की दूरूहताओं से घिरी ज़िन्दगी में
विराम तक की यात्रा के
सम्पुट मंत्र की ध्वनि
रची बसी रहती है.