अनाश्रितः कर्मफलं कार्यं कर्म करोति यः ।
स सन्न्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रियः ॥
यं सन्न्यासमिति प्राहुर्योगं तं विद्धि पाण्डव ।
न ह्यसन्न्यस्तसङ्कल्पो योगी भवति कश्चन ॥
अर्थात, भगवान ने कहा - जो मनुष्य बिना किसी फ़ल की इच्छा से अपना कर्तव्य समझ कर कार्य करता है, वही संन्यासी है और वही योगी है, न तो अग्नि को त्यागने वाला ही सन्यासी होता है, और न ही कार्यों को त्यागने वाला ही योगी होता है। जिसे संन्यास कहते हैं, उसे ही तू योग (परब्रह्म से मिलन कराने वाला) समझ, क्योंकि इन्द्रिय-सुख (शरीर के सुख) की इच्छा का त्याग किये बिना कभी भी कोई मनुष्य योग (परमात्मा) को प्राप्त नहीं हो सकता है।
आगे ५वें और ६ठे श्लोक में भगवान् ने स्पष्ट कहा है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपना उद्धार स्वयं करना है. जिसने मन और इन्द्रियों सहित शरीर पर विजय न प्राप्त की हो वह स्वयं ही अपने साथ शत्रुता बरत रहा होता है क्यूंकि हर व्यक्ति अपने आप का स्वयं ही शत्रु या मित्र है. अतः ५वें श्लोक के आरम्भ में ही भगवान् कहते हैं
"उद्धरेदात्मनाऽत्मानं..."