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सुप्रभातम्! जय भास्करः! ४१ :: सत्यनारायण पाण्डेय

सुप्रभातः सर्वेषां सुहृदयानां सज्जनानां कृते ये गीता-ज्ञान-यज्ञे संलग्नाः सन्ति। पंचमो अध्यायस्य यात्रा संक्षेपतः परिपूर्णो जातः! अद्य आत्मसंयमयोगोनाम  षष्ट अध्यायस्य यात्रा प्रारभ्यते!


प्रिय बंधुगण!

षष्ट अध्याय में प्रवेश से पहले पांचवें अध्याय के कुछ सन्दर्भों को ध्यान में रखना आवश्यक होगा. पांचवें अद्याय के प्रारंभ में भगवान् श्री कृष्ण ने अर्जुन के पूछने पर कर्म सन्यास यानि सांख्ययोग तथा कर्मयोग नामक दोनों साधनों में कौन सा साधन निश्चित रूप से कल्याणकारी है, यह जानना चाहा था जिसके उत्तर में भगवान् कृष्ण ने यह स्पष्ट किया था कि दोनों ही साधन समान रूप से कल्याणकारी हैं फिर भी कर्मसन्यास की अपेक्षा कर्मयोग श्रेष्ठ है. उसके मुख्य उपाय भी समझाए, ध्यानयोग का भी संकेत दिया फिर भी अर्जुन हम मानवों की तरह ही उन दोनों साधनों में कौन सा साधन करना है वह स्पष्ट रूप में समझ नहीं सका. अतः छठे अध्याय में ध्यानयोग का अंग सहित विस्तृत वर्णन कर भक्तियुक्त कर्मयोग में प्रवृत्त करने हेतु विस्तार से व्याख्या की गयी है. 

स्वाभाविक ही है, 'अनभ्यासे विषम विद्या', 'शास्त्रेषुचिन्तितमपिपरि चिंतनीयम', अर्थात अभ्यास न करने पर कोई भी विद्या विषम हो जाती है! अतः शास्त्रों को समझ लेने के बाद भी बार बार उसका मनन और चिंतन होते रहना आवश्यक होता है अन्यथा बातें विस्मृत एवं व्यवहार से भी लुप्त हो जाती हैं. 

आप सबों को यह ध्यान में होना चाहिए कि कर्मयोग के अनुसरण की प्रधानता को लेकर ही हम अबतक गीता ज्ञान यात्रा में पांचवें अध्याय तक बढ़ते चले आ रहे हैं. छठे अध्याय को भी भक्तियुक्त कर्मयोग में प्रवृत्त होने की प्रशंसा करते हुए यूँ आरम्भ किया है-- 

अनाश्रितः कर्मफलं कार्यं कर्म करोति यः ।
स सन्न्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रियः ॥

यं सन्न्यासमिति प्राहुर्योगं तं विद्धि पाण्डव ।
न ह्यसन्न्यस्तसङ्‍कल्पो योगी भवति कश्चन ॥

अर्थात, भगवान ने कहा - जो मनुष्य बिना किसी फ़ल की इच्छा से अपना कर्तव्य समझ कर कार्य करता है, वही संन्यासी है और वही योगी है, न तो अग्नि को त्यागने वाला ही सन्यासी होता है, और न ही कार्यों को त्यागने वाला ही योगी होता है। जिसे संन्यास कहते हैं, उसे ही तू योग (परब्रह्म से मिलन कराने वाला) समझ, क्योंकि इन्द्रिय-सुख (शरीर के सुख) की इच्छा का त्याग किये बिना कभी भी कोई मनुष्य योग (परमात्मा) को प्राप्त नहीं हो सकता है। 

आगे ५वें और ६ठे श्लोक में भगवान् ने स्पष्ट कहा है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपना उद्धार स्वयं करना है. जिसने मन और इन्द्रियों सहित शरीर पर विजय न प्राप्त की हो वह स्वयं ही अपने साथ शत्रुता बरत रहा होता है क्यूंकि हर व्यक्ति अपने आप का स्वयं ही शत्रु या मित्र है. अतः  ५वें श्लोक के आरम्भ में ही भगवान् कहते हैं 
"उद्धरेदात्मनाऽत्मानं..."

यथा--

उद्धरेदात्मनाऽत्मानं नात्मानमवसादयेत्‌ ।

आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः ॥

बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः ।

अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत्‌ ॥ 

अर्थात, मनुष्य को चाहिये कि वह अपने मन के द्वारा जन्म-मृत्यु रूपी बन्धन से मुक्त होने का प्रयत्न करे, और अपने को निम्न-योनि में न गिरने दे, क्योंकि यह मन ही जीवात्मा का मित्र है, और यही जीवात्मा का शत्रु भी है। जो मनुष्य मन को वश में कर लेता है, उसका मन ही परम-मित्र बन जाता है, लेकिन जो मनुष्य मन को वश में नहीं कर पाता है, उसके लिए वह मन ही परम-शत्रु के समान होता है।


क्रमशः


--डॉ. सत्यनारायण पाण्डेय 



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