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Channel: अनुशील
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मृत्यु के से बर्फ़ीले फैलाव पर

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हृदय
चीखना चाहता है
फूट-फूट कर
रोना चाहता है 


ऐसी सहूलियतें कहाँ
जीवन की कँटीली राह में
कि रुक कर
रो लिया जा सके
सब कुछ स्थगित कर
अपना हो लिया जा सके 


जीवन की निरीहता
सालती है
कैसे-कैसे तो साँचों में पीड़ा खुद को 

ढ़ालती है 


एक साँस के बाद दूसरी आ सके
इसे संभव करने को
टूटे मन से ही
टूटे मन को
कलम लिखने लगती है 


कविता सुनाई पड़ती है
वो धुंधली आँखों को
दिखने लगती है


स्थगित हो जाता है गति का सत्य
विराम की पीड़ा बेध जाती है 


उस विकटता में
कविता स्नेहिल रूदन बन आँखों से बरस जाती है 


कि
अवश्यम्भावी होकर भी
चीख नहीं निकलती 


वो वहीँ दबी है
हृदय की मिट्टी में 


दरअसल
टूटे-फूटे शब्द ये
उसी चीख का परिवर्तित रूप हैं 


कविता
मृत्यु के से बर्फ़ीले फैलाव पर
झुरमुटों से होकर पड़ती
अजानी धूप है.





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