अद्य कर्मसन्यासयोगोनाम पंचमोऽध्यायः एव ध्यातव्यं विद्यते! पंचमोऽध्यायोऽपि कर्मयोगमेवानुसरणीयमिति शिक्षयति ! क्रमशः इति क्रमे.
प्रिय बंधुगण!
भगवान् श्री कृष्ण ने इस अध्याय चौथे श्लोक में ही स्पष्ट कर दिया है कि सांख्ययोग और कर्मयोग दोनों एक ही हैं, यह ग्यानी व्यक्ति अच्छी प्रकार समझता है. अजानकार भाले संदिग्ध अवस्था को प्राप्त हो जाएँ, इसलिए निर्णय के तौर पर वे पुनः स्पष्ट करते हैं कि दोनों विधाओं में से एक में भी सम्यक प्रकार से स्थित व्यक्ति परमात्मा को अंततः प्राप्त करता ही है. अतः यह स्पष्ट हुआ अपनी अपनी योग्यता और क्षमता के अनुसार हमारा मार्ग जो भी हो, प्राप्त होने वाले फल की सदा एकरूपता ही रहती है. इसीलिए तो पांचवें श्लोक में भी भगवान् इसे ही पुनः रेखांकित करते हैं.
यत्साङ्ख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्यौगैरपि गम्यते ।
एकं साङ्ख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति ॥५॥
अर्थात, ज्ञान योगियों द्वारा जो परमधाम प्राप्त किया जाता है, कर्मयोगियों द्वारा भी वही प्राप्त किया जाता है। इसलिए जो पुरुष ज्ञानयोग और कर्मयोग को फलरूप में एक देखता है, वही यथार्थ देखता है.
ज्ञानयोगी बड़ी आसानी से अपने कर्म को करते हुए भी निर्लिप्त रहता है, ऐसी स्थिति सामान्य कर्मयोगी के लिए दुष्कर है, यद्यपि दोनों के लिए कर्म करना आवश्यक है. इसी को सरल ढंग से रखते हुए भगवान् आठवें श्लोक से आगे कहते हैं...
नैव किंचित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्ववित् ।
पश्यञ्श्रृण्वन्स्पृशञ्जिघ्रन्नश्नन्गच्छन्स्वपंश्वसन् ॥८॥
प्रलपन्विसृजन्गृह्णन्नुन्मिषन्निमिषन्नपि ॥
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन् ॥९॥
ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा करोति यः ।
लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा ॥१०॥
अर्थात, तत्व को जानने वाला सांख्ययोगी तो देखता हुआ, सुनता हुआ, स्पर्श करता हुआ, सूँघता हुआ, भोजन करता हुआ, गमन करता हुआ, सोता हुआ, श्वास लेता हुआ, बोलता हुआ, त्यागता हुआ, ग्रहण करता हुआ तथा आँखों को खोलता और मूँदता हुआ भी, सब इन्द्रियाँ अपने-अपने अर्थों में बरत रही हैं- इस प्रकार समझकर निःसंदेह ऐसा मानें कि मैं कुछ भी नहीं करता हूँ. जो पुरुष सब कर्मों को परमात्मा में अर्पण करके और आसक्ति को त्याग कर कर्म करता है, वह पुरुष जल में कमल के पत्ते की भाँति पाप से लिप्त नहीं होता.
इस प्रकार ज्ञानपूर्वक कर्म मार्ग और सामान्य कर्ममार्ग, दोनों विधाओं को समझने का हमें अवसर दिया गया, अब स्वयं पर निर्भर है कि हम अपने अभ्यास के बलपर अपने को किस मार्ग के अनुरूप पाते हैं. दोनों मार्गों को समझने के उपरान्त हमें चाहिए कि हम बिना रुके उस मार्ग के अनुसरण में लग जायें. उदाहरणार्थ, वैष्णव देवी के दर्शन की कामना वाले व्यक्ति जैसे अपने सामर्थ्यानुसार हवाई मार्ग, अश्वारोहण या पैदल मार्ग का अनुसरण कर रहे हों, अभीष्ट तो एक देवी दर्शन ही है जो विविध समय अंतराल में सबों के लिए सुलभ होगा ही. इसलिए अपनी मति, बुद्धि के अनुसार हमें कर्म मार्ग का अनुसरण ही अभीष्ट होना चाहिए!
क्रमशः...
--सत्य नारायण पाण्डेय
भगवान् श्री कृष्ण ने इस अध्याय चौथे श्लोक में ही स्पष्ट कर दिया है कि सांख्ययोग और कर्मयोग दोनों एक ही हैं, यह ग्यानी व्यक्ति अच्छी प्रकार समझता है. अजानकार भाले संदिग्ध अवस्था को प्राप्त हो जाएँ, इसलिए निर्णय के तौर पर वे पुनः स्पष्ट करते हैं कि दोनों विधाओं में से एक में भी सम्यक प्रकार से स्थित व्यक्ति परमात्मा को अंततः प्राप्त करता ही है. अतः यह स्पष्ट हुआ अपनी अपनी योग्यता और क्षमता के अनुसार हमारा मार्ग जो भी हो, प्राप्त होने वाले फल की सदा एकरूपता ही रहती है. इसीलिए तो पांचवें श्लोक में भी भगवान् इसे ही पुनः रेखांकित करते हैं.
यत्साङ्ख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्यौगैरपि गम्यते ।
एकं साङ्ख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति ॥५॥
अर्थात, ज्ञान योगियों द्वारा जो परमधाम प्राप्त किया जाता है, कर्मयोगियों द्वारा भी वही प्राप्त किया जाता है। इसलिए जो पुरुष ज्ञानयोग और कर्मयोग को फलरूप में एक देखता है, वही यथार्थ देखता है.
ज्ञानयोगी बड़ी आसानी से अपने कर्म को करते हुए भी निर्लिप्त रहता है, ऐसी स्थिति सामान्य कर्मयोगी के लिए दुष्कर है, यद्यपि दोनों के लिए कर्म करना आवश्यक है. इसी को सरल ढंग से रखते हुए भगवान् आठवें श्लोक से आगे कहते हैं...
नैव किंचित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्ववित् ।
पश्यञ्श्रृण्वन्स्पृशञ्जिघ्रन्नश्नन्गच्छन्स्वपंश्वसन् ॥८॥
प्रलपन्विसृजन्गृह्णन्नुन्मिषन्निमिषन्नपि ॥
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन् ॥९॥
ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा करोति यः ।
लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा ॥१०॥
अर्थात, तत्व को जानने वाला सांख्ययोगी तो देखता हुआ, सुनता हुआ, स्पर्श करता हुआ, सूँघता हुआ, भोजन करता हुआ, गमन करता हुआ, सोता हुआ, श्वास लेता हुआ, बोलता हुआ, त्यागता हुआ, ग्रहण करता हुआ तथा आँखों को खोलता और मूँदता हुआ भी, सब इन्द्रियाँ अपने-अपने अर्थों में बरत रही हैं- इस प्रकार समझकर निःसंदेह ऐसा मानें कि मैं कुछ भी नहीं करता हूँ. जो पुरुष सब कर्मों को परमात्मा में अर्पण करके और आसक्ति को त्याग कर कर्म करता है, वह पुरुष जल में कमल के पत्ते की भाँति पाप से लिप्त नहीं होता.
इस प्रकार ज्ञानपूर्वक कर्म मार्ग और सामान्य कर्ममार्ग, दोनों विधाओं को समझने का हमें अवसर दिया गया, अब स्वयं पर निर्भर है कि हम अपने अभ्यास के बलपर अपने को किस मार्ग के अनुरूप पाते हैं. दोनों मार्गों को समझने के उपरान्त हमें चाहिए कि हम बिना रुके उस मार्ग के अनुसरण में लग जायें. उदाहरणार्थ, वैष्णव देवी के दर्शन की कामना वाले व्यक्ति जैसे अपने सामर्थ्यानुसार हवाई मार्ग, अश्वारोहण या पैदल मार्ग का अनुसरण कर रहे हों, अभीष्ट तो एक देवी दर्शन ही है जो विविध समय अंतराल में सबों के लिए सुलभ होगा ही. इसलिए अपनी मति, बुद्धि के अनुसार हमें कर्म मार्ग का अनुसरण ही अभीष्ट होना चाहिए!
क्रमशः...
--सत्य नारायण पाण्डेय