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सुप्रभातम्! जय भास्करः! ३८ :: सत्यनारायण पाण्डेय

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सुप्रभातः सर्वेषां सुहृदयानां सज्जनानां कृते ये गीता-ज्ञान-यज्ञे संलग्नाः सन्ति। 
अद्य कर्मसन्यासयोगोनाम पंचमोऽध्यायः एव ध्यातव्यं विद्यते। पंचमोऽध्यायोऽपि कर्मयोगमेवानुसरणीयमिति
शिक्षयति !

प्रिय बंधुगण!
आरम्भ से अंत तक (प्रथम अध्याय से अष्टादश अध्याय तक) गीता में भगवान् श्री कृष्ण ने अर्जुन को विभिन्न प्रकार से कर्मयोग की ही शिक्षा दी है. संभव है अर्जुन ऐसे मुख्य पात्र के साथ साथ विश्व मानव को भी इसी ब्याज़ से शिक्षित करना भी उद्देश्य रहा हो. पंचम अध्याय में भी अर्जुन ज्ञानी कर्मयोगी और कर्मयोगी के विभेद को प्रकट करता हुआ प्रश्न कर बैठता है

अर्जुन उवाच -
संन्यासं कर्मणां कृष्ण पुनर्योगं च शंससि।
यच्छ्रेय एतयोरेकंतन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम्॥१॥
अर्जुन कहते हैं - हे कृष्ण! पहले आप कर्मों के संन्यास (त्याग) की और फिर कर्मों से योग की प्रशंसा करते हैं. इन दोनों में से श्रेष्ठतर, कल्याणकारक और निश्चित साधन को मुझसे कहिए.

इससे पूर्व तीसरे अध्याय के प्रथम श्लोक में भी अर्जुन ने इसी ढ़ंग का प्रश्न भगवान् से किया था.
अर्जुन उवाचज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन । तत्किं कर्मणि घोरे मां नियोजयसि केशव ॥३/१॥
व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मे । तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम्‌॥३/२॥
अर्जुन बोले- हे जनार्दन! यदि आपको कर्म की अपेक्षा ज्ञान श्रेष्ठ मान्य है तो फिर मुझे भयंकर कर्म में क्यों लगाते हैं? आप मिले हुए-से वचनों से मेरी बुद्धि को मानो मोहित कर रहे हैं. इसलिए उस एक बात को निश्चित करके कहिए जिससे मैं कल्याण को प्राप्त हो जाऊँ.

यह सब उद्धृत करने का मेरा तात्पर्य यह है कि दूसरे से लेकर चौथे अध्याय तक कर्मयोग की अनिवार्यता भगवान् ने स्पष्ट कर दी है, चाहे वह ज्ञानमार्गी हो या कर्मयोगमार्गी हो फिर भी पांचवें अध्याय में अर्जुन के संदिग्ध मन मे फिर वही प्रश्न उठ खड़ा होता है।

इससे स्पष्ट है कि यदि हम केवल बौद्धिक स्तर पर गीता को पढ़ें सुने अथवा अध्ययन करते रहें और तदनुरूप दैनंदिन जीवन के कर्म संपादन में उसे अपने आचरण में न लायें तो यह संदेह की स्थिति मृत्युपर्यंत हम सबों के लिए भी बनी ही रह जाएगी. अतः हम सबको चाहिए कि गीतामाता की अध्यात्मिक दृष्टि की पूजा अर्चना करने मात्र से ही अपने कर्त्तव्य की इतिश्री न समझ अनासक्त भाव एवं फालाकंक्षा रहित होकर मोहग्रस्त न होते हुए कर्त्तव्य कर्मों के प्रति अवश्य प्रवृत्त हों. इसके सिवा गीता को सहज ढंग से समझने का अन्य कोई उपाय भी नहीं है. निष्काम कर्म के प्रति हमारी लगन चलना सीख रहे एक नन्हे बच्चे की तरह ही होनी चाहिए. जैसे आरंभिक अवस्था में स्वयं या माता पिता के सहयोग से चलते, गिरते, उठते भली प्रकार चलना सीख जाता है वैसे ही हम सब भी निष्काम कर्म मार्ग में गीता माता की सहायता से चलते, गिरते, उठते एक दिन निश्चित दक्ष हो जायेंगे.
पंचम अध्याय के तीसरे और चौथे श्लोक में पुनः भगवान् अर्जुन को स्पष्ट करते हुए यह कहते हैं--
ज्ञेयः स नित्यसंन्यासी यो न द्वेष्टि न काङ्क्षति।
निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते॥५/३॥
सांख्ययोगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः।
एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोर्विन्दते फलम्॥५/४॥
अर्थात, हे वीर अर्जुन! जो न किसी से द्वेष करता है और न किसी की आकांक्षा करता है, उस कर्मयोगी को सदा संन्यासी ही जानना चाहिए क्योंकि (राग-द्वेष, आदि) द्वंद्वों से रहित पुरुष सुखपूर्वक संसार-बंधन से मुक्त हो जाता है. (सांख्य) कर्म-संन्यास और कर्मयोग को अज्ञानी ही अलग-अलग फल देने वाला कहते हैं न कि ज्ञानीजन, क्योंकि दोनों में से एक में भी ठीक प्रकार से स्थित पुरुष दोनों के ही फल को प्राप्त होता है.

जैसा कि मैंने पहले भी निवेदित किया है कि अपने नित्य के अभ्यास में उठते-बैठते, सोते-जागते, गीता की शिक्षा के अनुरूप हम अपने कर्मों में उसे नहीं अपनायेंगे तो इस प्रकार की दुविधा कर्मों के प्रति बनी ही रहेगी.

जब अर्जुन ऐसा व्यक्ति भी भगवान् के द्वारा निरंतर उपदेश दिए जाने पर भी अट्ठारहवें अध्याय तक मोह से निवृत्त नहीं हो पाता तो अट्ठारहवें अध्याय के नवें श्लोक में कर्म संपादन की सहज स्थिति बतलाते हुए कहते हैं--
कार्यमित्येव यत्कर्म नियतं क्रियतेअर्जुन ।
सङ्‍गं त्यक्त्वा फलं चैव स त्यागः सात्त्विको मतः ॥
अर्थात, हे अर्जुन! जो शास्त्रविहित कर्म करना कर्त्तव्य है, इसी भाव से आसक्ति और फल का त्याग करके किया जाता है- वही सात्त्विक त्याग माना गया है.

यहाँ भी आसक्ति रहित कर्मयोग की ही महिमा रेखांकित की गयी है. यह सब होते हुए भी जब अर्जुन का मोह भंग नहीं हुआ और उसकी यह धारणा बनी रही कि अगर वह युद्ध में भाग लेता है तो पाप का भागी होगा, जबकि बताये गए मार्ग का अनुसरण करते हुए कर्म करने से पाप पुण्य का सवाल ही नहीं उठता है, और न ही वैसे कर्मफल रुपी पाप से बचने बचाने की जरुरत है. इस भाव से ही अट्ठारहवें अध्याय के ६६ वें श्लोक में भगवान् ने अर्जुन को आश्वस्त करना चाहा है--

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज। अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥१८/६६॥
अर्थात! संपूर्ण धर्मों (तुम्हारे मन में जितने प्रकार की भावनाएं/ ऊहापोह/सोच हिलोरें ले रहे हैं) को संपूर्ण कर्तव्य कर्मों को मुझमें त्यागकर तू केवल एक मुझ सर्वशक्तिमान, सर्वाधार परमेश्वर की ही शरण में आ जा. मैं तुझे संपूर्ण पापों से मुक्त कर दूँगा, तू शोक मत कर.

७२ वें श्लोक में पुनः भगवान अर्जुन से इतना ही पूछते हैं कि हे अर्जुन! क्या तुमने मेरे द्वारा कही गयी बातों (कर्मयोग सम्बन्धी) को ध्यानपूर्वक सुना है और क्या तुम्हारा अज्ञान रुपी मोह नष्ट हुआ ? इसके उत्तर स्वरुप ७३ वें श्लोक में अर्जुन विश्वस्त भाव से प्रतिउत्तर देता है कि--

अर्जुन उवाच
नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वप्रसादान्मयाच्युत। स्थितोऽस्मि गतसंदेहः करिष्ये वचनं तव ॥१८/७३॥
अर्जुन बोले- हे अच्युत! आपकी कृपा से मेरा मोह नष्ट हो गया और मैंने स्मृति प्राप्त कर ली है, अब मैं संशयरहित होकर स्थिर हूँ, अतः आपकी आज्ञा का पालन करूँगा.

पुनः गीता ज्ञान यात्रा के सहयात्रियों से विनम्र निवेदन करना चाहूँगा कि आज की विवेचना को हम सब अपने मन मस्तिष्क में अवश्य स्थान दें ताकि अर्जुन की तरह हम सब भी "नष्टो मोहः .... करिष्ये वचनं तव"स्थिति को प्राप्त हो सकें!

क्रमशः...

--सत्यनारायण पाण्डेय 


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