सुप्रभातः सर्वेषां सुहृदयानां सज्जनानां कृते ये गीता-ज्ञान-यज्ञे संलग्नाः सन्ति। अद्यापि ज्ञानकर्मसन्यासयोगोनाम चतुर्थोऽध्यायेएव ध्यातव्यं विद्यते।
प्रिय बन्धुगण!
अब तक इस अध्याय में भी ज्ञानपूर्वक कर्म करने की प्रमुखता का ही वर्णन किया गया है. इस अध्याय के सोलहवें श्लोक में ही स्वयं भगवान् ने अर्जुन और उसके माध्यम से सारे संसार के मनुष्यों के लिए कर्म संपादनार्थ बहुत ही सुन्दर तथ्य को उद्घाटित किया है--
किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिताः।
तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्॥१६॥
अर्थात्, कर्म क्या है? अकर्म क्या है? इसका निर्णय करने में बुद्धिमान भी मोहित हो जाते हैं। इसलिए मैं तुमसे वह कर्म कहूँगा जिसे जानकर तुम अशुभ (कर्म-बंधन) से मुक्त हो जाओगे.
साधारण जन मानस के सामने कई बार ऐसा अवसर उपस्थित हो जाता है कि वह निर्णय लेने में समर्थ नहीं हो पाता कि वह कर्म संपादन करे कि कर्म से विरत हो जाए. ऐसी परिस्थिति में भगवान् कृष्ण ने तीन प्रकार के कर्मों को भली प्रकार समझने की बात अर्जुन से कहते हैं और मानते भी हैं कि कर्म की गति अति गहन है.
कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः।
अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः॥१७॥
अर्थात, कर्म का स्वरूप भी जानना चाहिए और विकर्म का स्वरूप भी जानना चाहिए तथा अकर्म का स्वरूप भी जानना चाहिए क्योंकि कर्मों की गति गहन (छिपी हुई) है.
आगे अट्ठारहवें श्लोक में कर्म, विकर्म और अकर्म को स्पष्ट करते हुए भगवान् कहते हैं
कर्मण्य कर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः ।
स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्तः कृत्स्नकर्मकृत् ॥१८॥
अर्थात, जो मनुष्य कर्म में अकर्म (शरीर को कर्ता न समझकर आत्मा को कर्ता) देखता है और जो मनुष्य अकर्म में कर्म (आत्मा को कर्ता न समझकर प्रकृति को कर्ता) देखता है, वह मनुष्यों में बुद्धिमान है और वह मनुष्य समस्त कर्मों को करते हुये भी सांसारिक कर्मफ़लों से मुक्त रहता है.
इसके बाद भी यदि हम मनुष्य संदिग्ध स्थिति को प्राप्त होते हैं तो भगवान् ने संकेत दिया है कि तत्वज्ञानियों के संपर्क में व्यक्ति को जाना चाहिए जिससे कभी भी मोह की स्थिति न आने पाए. यहाँ विशेष रूप से ध्यातव्य है कि समसामयिक तत्वज्ञानी से संपर्क करना ही उचित होता है न कि आज के संत स्वरुपधारी विविध क्षेत्रों के मठाधीशों की शरण में जिनकी दुरावस्था हम खुद देख ही रहे हैं. यह सही है कि हमारी अध्यात्मिक एवं धार्मिक भावना इतनी सुदृढ़ और सरल है कि हम अध्यात्मिक परिवेश के प्रति बिना तर्क के सहज ही आकृष्ट हो जाते हैं. पर इस अध्याय का मुख्य उद्देश्य ज्ञान संबलित अनासक्त भाव से कामना रहित हो कर्म करने की शिक्षा देना है. अतः तैंतीसवें श्लोक में स्पष्ट किया गया है कि अखिल कर्म ज्ञान के कारण ही समाप्त हो पाते हैं.
श्रेयान्द्रव्यमयाद्यज्ञाज्ज्ञानयज्ञः परन्तप ।
सर्वं कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते ॥३३॥
अर्थात, हे परंतप अर्जुन! धन-सम्पदा के द्वारा किये जाने वाले यज्ञ की अपेक्षा ज्ञान-यज्ञ अत्यन्त श्रेष्ठ है तथा सभी प्रकार के कर्म ब्रह्म-ज्ञान में पूर्ण-रूप से समाप्त हो जाते हैं.
तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया ।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्वदर्शिनः ॥३४॥
अर्थात, यज्ञों के उस ज्ञान को तू गुरू के पास जाकर समझने का प्रयत्न कर, उनके प्रति पूर्ण-रूप से शरणागत होकर सेवा करके विनीत-भाव से जिज्ञासा करने पर वे तत्वदर्शी ब्रह्म-ज्ञानी महात्मा तुझे उस तत्व-ज्ञान का उपदेश करेंगे।
आगे ज्ञान की महत्ता बतलाते हुए भगवान् कहते हैं कि जैसे सूखी जलावन की लकड़ी के ढेर को अग्नि क्षण भर में जलाकर भस्म कर देती है वैसे ही ज्ञान रुपी अग्नि में सारे कर्म भस्म हो जाते हैं क्यूंकि ज्ञान से पवित्र इस संसार में कुछ भी नहीं है.
यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन ।
ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा ॥३७॥
इस प्रकार चालीसवें, एक्तालिस्वें एवं बयालिस्वें श्लोक में भगवान् ने स्पष्ट किया है कि यह संसार अज्ञानी, श्रद्धाराहित और संशययुक्त व्यक्ति के लिए नहीं है. ऐसे व्यक्ति के लिए न तो यह लोक सुखदायी होता है और न ही परलोक. अतः योगयुक्त होकर ज्ञान धारण करते हुए संशय रहित हो आत्मतत्व को समझते हुए कर्म करने वाले व्यक्ति के लिए कर्म बंधन के कारण नहीं बनते.
बयालिस्वें श्लोक में उन्होंने स्पष्ट कर दिया कि हे भारत! (अर्जुन) अज्ञान से उत्पन्न उस संशय को हृदय में स्थित ज्ञान रुपी तलवार से काटते हुए योग अर्थात कर्मयोग के लिए तुम उठ खड़े होओ! इस प्रकार हम देखते हैं कि ज्ञान संबलित कर्मयोग की परिपुष्टि ही "ज्ञानकर्मसन्यासयोगनाम"यह चतुर्थ अध्याय भी कर रहा है.
क्रमशः--सत्यनारायण पाण्डेय