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सुप्रभातम्! जय भास्करः! ३३ :: सत्यनारायण पाण्डेय

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सुप्रभातः सर्वेषां सुहृदयानां सज्जनानां कृते ये गीता-ज्ञान-यज्ञे संलग्नाः सन्ति। अद्यापि कर्मयोगो नाम तृतीयोऽध्यायैव ध्यातव्यमस्ति। 
अद्य निःसन्देहेन कर्मयोगस्य  प्राधान्यमिति सुनिश्चितो भविष्यति,
तृतीयोऽध्यायस्योपसंहारोऽपि करणीयं विद्यते!

प्रियबन्धुगण!
कल का समय, वर्ष में एक बार आने वाले दीपावली पर्व की हार्दिक शुभकामनायें स्वजन सुधीजनों से पाने और उन्हें प्रेषित करने में ही व्यतीत हो गया, कल गीता-ज्ञान-यात्रा का पड़ाव या विश्राम रहा, पर एक बात गौर करने लायक है, कि जैसे  हमनें बाहरी अन्धकार को दीप जला कर दूर कर दिया है, ठीक वैसे ही गीता-ज्ञान रूपी दीप को हृदय में धारण करते हुए हृदयगत अज्ञान रूप अंधकार को दूर करने के लिए भी प्रयत्नशील हों।

शप्तशती (दुर्गा) भी कहती है:--"ज्ञानमस्ति समस्तस्य जन्तोः विषय गोचरे। विषयश्च महाभाग यातिचैवं पृथक् पृथक्।।
अर्थात्! ज्ञान समस्त प्राणियों में होता है, मात्रा की पृथकता भले हो सकती है, इस हृदयगत ज्ञान को मलिन होने देने के बजाय, बाह्य दीपोत्सव की तरह अन्तः करण के ज्ञान दीप को भी सोत्साह उद्दीप्त करने की चेष्टा भी हम क्यों न करें। गीता के पांचवें अध्याय के पन्द्रहवें श्लोक की दूसरी पंक्ति में कहा भी गया है:--

"अज्ञानेनावृतं ज्ञानं ते न मुह्यन्ति जन्तवः।।" 
हमारे अन्तः करण में ईश्वर प्रदत्त ज्ञान, हमारी ही असावधानी के कारण अज्ञान एवं मोह के वशीभूत हो अन्धकार (अज्ञान) का दास हो जाता है। अतः ज्ञान के दीप को हृदय में भी जलाए रखना हम सब का पुनीत कर्तव्य होना ही चाहिए।

तो आएं गीता-ज्ञान- यात्रा के क्रम में तीसरे अध्याय के उपसंहार एवं कर्म योग की अनिवार्यता को स्वीकारते हुए निर्द्वन्द्व एवं फलाकांक्षा रहित होकर कर्म करनेकी कला सीखें। 

इसके लिए आरम्भ के नवें श्लोक से सोलहवें श्लोक को भी ध्यान में रखना चाहिए। यहां उन सभी श्लोकों का अर्थसहित उद्धरण न देकर अपनी बुद्धि को परिपुष्ट करने के लिए भावार्थ का अनुसरण करेंगे:-
यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्बन्धनः। तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसड़्गः समाचार ।।३/९।।

अर्थात्! यज्ञ के निमित्त किए जाने वाले कर्मों से अतिरिक्त दूसरे कर्मों में लगना ही मनुष्य समुदाय को बांधता है। इस लिए हे अर्जुन ! तू आसक्ति रहित होकर उस यज्ञ के निमित्त ही भलीभांति कर्तव्य कर्म कर।

यहाँ यज्ञमंडप में ही हवनकुंडादि के निर्माणपूर्वक वेदमंत्रादि से सम्पन्न कराए जाने वाले  विधि-विधान  को ही यज्ञ पद से बोधित नहीं किया गया है बल्कि आप ध्यान देंगे तो नवें श्लोक में ही यह बात स्पष्ट हो गयी है कि कर्तव्य भाव से शास्त्र सम्मत सभी कर्म यदि अनासक्त भाव से लोक हित में किए जाएँ तो वैसे कर्म भी  यज्ञभाव भावित होने के कारण यज्ञ रूप कर्म कहलाते हैं, अतः बन्धन के कारण नहीं होते ।

जहाँ तक उस विधेय यज्ञ की बात है उसकी ओर भी संकेत देते हुए भगवान ने कहा है कि:-- यज्ञ द्वारा तुम सब देवताओं को उन्नत करो और वे देवता तुम लोगों को उन्नति देंगे। इस प्रकार निःस्वार्थ भाव से  एक दूसरे को उन्नत करते हुए तुम लोग परम कल्याण को प्राप्त होओगे ।११।

देवान्भावयतानेन ते  देवा भावयन्तु वः। परस्परं  भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ ।।३/११।। 

अब यहां तक यह बात सुनिश्चित हो गयी है कि कर्म किसी भी परिस्थिति में अनिवार्य है, यज्ञ भाव भावित होकर यानि  शास्त्र विहित कर्मों का अनासक्त भाव से लोकहित में कर्म सम्पादन कर्म बंन्धन से मुक्त कर परमपद यानि मोक्ष का  अधिकारी बना देता है!
आगे बढते हुए अर्जुन के प्रश्न और भगवान् के उत्तर भी हम मनुष्यों के लिए मार्ग दर्शक होगा ।

अर्जुन कहता है कि क़ोई भी व्यक्ति न तो  पाप करना चाहता है और न तो पाप का फल ही भुगतना चाहता है, फिर  भी  बल पूर्वक किसी के द्वारा लगाए हुए की भांति किससे प्रेरित होकर वह पापाचरण में लग जाता है। अर्जुन उवाच:--"अथ केन प्रयुक्तोऽयं  पापं चरति पुरूषः। अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः।।३/३६।।
श्री भगवानुवाच:--"काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः। महाशनो महापाप्मा विद्धियेनमिह वैरिणम् ।।३७।। अर्थात्!  रजो गुण से उत्पन्न  हुई कामना, न पूरी होने पर क्रोध का रूप ले लेती है। कामनाएं तो अनन्त हैं, ये "महा अशन्"बहुत बहुत खाने वाली होती हैं, अतः यह कभी संतुष्ट नहीं होने वाली है, इस काम भाव को ही इस विषय में तुम शत्रु समझो ।

काम ज्ञान को धूमिल करने वाला होता है, अतः इससे बचना ही श्रेयष्कर है।

अतएव भगवान् अर्जुन को कहते हैं कि इन्द्रियों को वश में करके अपने अन्दर के ज्ञान और विज्ञान को नाश करने वाले महान पापी काम को बलपूर्वक (प्रयत्नशील होकर) मार डाल, अर्थात् हम प्रयास करें कि वैसी नौबत ही न आये। यथः- तस्मात्वमिन्द्रिण्यादौ नियम्य भरतर्षभ। पाप्मानं प्रजहि  ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम् ।।४१।।

अन्तिम तैतालिसवें  श्लोक में  भगवान् अर्जुन को कहते हैं कि श्रेष्ठ आत्मतत्व को जानकर तथा बुद्धि को स्थिर रखते हुए मन को वश में कर के हे महाबाहो! इस काम रूप दुर्जय शत्रु को मार डाल!

यहां ध्यातव्य है कि कामना रहित, लगाव रहित एवं फलाकांक्षा रहित होकर कर्म करने की आवश्यकता पर आरम्भ के श्लोकों में बल दिया गया था, कर्म योग की अनिवार्यता को ध्यान में रखते हुए कर्म करने की शिक्षा के साथ वह अवधारणा हम सब स्वीकार भी करते हैं। अर्जुन के प्रश्न और भगवान् के उत्तर से अन्ततः यह बात हम सब को भी सचेत करती है कि काम यानि कामना यदि हमें अपने आगोश में ले लेती है तो, वह हमें कर्म पथ से भ्रष्ट करेगी  ही, अतः ज्ञान और बुद्धि के बल पर उसे पास फटकने ही नहीं देना है ।

चौथा अध्याय "ज्ञानकर्मसन्न्यासयोगो नाम"कहलाता है, कल गीता-ज्ञान यात्रा में इस अध्याय की भूमिका के साथ शुरूआत करेंगे ।
क्रमशः

--सत्यनारायण पाण्डेय 


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