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सुप्रभातम्! जय भास्करः! ३२ :: सत्यनारायण पाण्डेय

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सुप्रभातःसर्वेषां कृते, ये गीता-ज्ञान चर्चायां संलग्नाः सन्ति।अद्यापि तृतीयोऽध्यायैव हि चिन्तनस्य विषयः।
प्रियबन्धुगण ! 
तृतीय अध्याय में भी ४३ श्लोक हैं, कल तक हमारी यात्रा ८वें श्लोक तक हुई थी, मैं पहले भी विनम्र निवेदन कर चुका हूँ कि गीता ऐसे शास्त्र में स्वयं भगवान् की वाणी है, उसमें एक अक्षर भी व्यर्थ नहीं, फिर भी  सुगमता के लिए कम समय में हम अपने मन-मस्तिष्क  में बैठाने वाली बातों पर ग़ौर करेंगे । इतनी बात तो तृतीयोऽध्याय के अब तक के विवेचन से तो स्पष्ट हो गया है कि --
ज्ञानयोग और कर्मयोग के अनुसार अनासक्त भाव से नियत कर्म करना ही श्रेष्ठ है, कर्म न करने के हठ की अपेक्षा ज्ञानवान पुरूष को लोक संग्रह के लिए भी कर्म करना चाहिए, जिसकी चर्चा कल इसी बीसवें श्लोक "कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः ।"के क्रम में की जा चुकी है। आगे २१ वें श्लोक में कहा गया है कि:--

यद्यदाचरति  श्र्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनाः।
स यत्प्रमाणं कुरूते लोकस्तदनुवर्तते।।३/२१।।

अर्थात्, श्रेष्ठ पुरूष जो जो आचरण करता है, अन्य लोग देख कर वैसा ही  आचरण करते हैं। वह जो भी आचरण करता है लोक यानि जन समुदाय उसी का अनुकरण करने लग जाते हैं। हम आप आज की सर्वत्र फैलती कुव्यवस्था या दुरावस्था का कारण सहज ही समझ  सकते हैं, आज अध्यात्म का क्षेत्र हो, राजनीति का क्षेत्र हो, या फिर सामाजिक अन्य क्षेत्र की बात हो सर्वत्र  हमारे भ्रष्ट जननायकों को ही, आप पाएंगे, क़ोई भी श्रेष्ठपद की मर्यादा निर्वहण करता नहीं दिखता, जन सामान्य तो जन सामान्य है ही।

मेरा मानना है कि अभी भी हमारे शास्त्र परम उपयोगी हैं और धूर्तों, पाखंडियों को छोड़कर बाकी भोला  जनमानस विल्कुल पवित्र बुद्धि सम्पन्न है । अतः किसी भी क्षेत्र में नेतृत्व करने वाले के प्रति ईश्वर बुद्धियुक्त व्यक्ति को सरल जन मानस के हित में यथा काल सहयोगी बनना ही चाहिए ।
   देखें अगले २२, २३ और २४वें श्लोक में स्वयं भगवान् यह उत्तरदायित्व लेते हुए कह रहे हैं:--

न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किञ्चन।
नानवाप्तमवाप्तव्यं  वर्त एव कर्मणि ।।
यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रितः। 
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः   पार्थ सर्वशः।।
उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्यां कर्म चेदहम्।
संकरस्य च कर्ता स्यामुपहन्यामिमाः प्रजाः।।
अर्थात्:-
हे अर्जुन! मुझे इन तीनों लोकों में न तो कुछ कर्तव्य है और न कोई भी प्राप्त करने योग्य वस्तु अप्राप्त है, तो भी मैं कर्म में ही बरतता हूँ, क्योंकि हे पार्थ! यदि कदाचित्‌ मैं सावधान होकर कर्मों में न बरतूँ तो बड़ी हानि हो जाए क्योंकि मनुष्य सब प्रकार से मेरे ही मार्ग का अनुसरण करते हैं ! इसलिए यदि मैं कर्म न करूँ तो ये सब मनुष्य नष्ट-भ्रष्ट हो जाएँ और मैं संकरता का करने वाला होऊँ तथा इस समस्त प्रजा को नष्ट करने वाला बनूँ!

भगवान् अपने दायित्व का निर्वहन करना उचित समझते हैं, क्योंकि उन्होंने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि अगर मैं ऐसा न करूं तो मनुष्य नष्ट-भ्रष्ट हो जाएंगे और उनकी वर्णसंकरता और समस्त प्रजा के नष्ट करने का जिम्मेदार मैं ही कहलाऊंगा । आज अपनी तिजोरी और अपना पेट भरने के सिवा लोक रक्षण की बात  सोचता ही कौन है ?
उस मूढ को  इस संसार में भी  सुख नहीं मिल पाता है और न उसका परलोक ही बन पाता है । क्या हम सब प्रत्यक्ष नहीं देख रहे, अनुभव नहीं कर रहे उन दम्भियों को, जो मोह के वशीभूत आज सलाखों के पीछे या दैवी प्रकोप से आक्रान्त हो भुगत रहे हैं, चाहे वे अध्यात्म से खिलवाड़ करने वाले हों, या राजनैतिक क्षेत्र अथवा समाज सुधार का ढोंग करने वाले हों ।

इसीलिए भगवान् ने अर्जुन के साथ साथ हम सब को इसी अध्याय के पच्चीसवें श्लोक में सहज निर्देश दिया है कि:--
सक्ताः कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत ।
कुर्याद्विद्वांस्तथासक्तश्चिकीर्षुर्लोकसड़्ग्रहम्।।
अर्थात्! हे भारत (अर्जुन) कर्म में आसक्त हुए अज्ञानी जन जिस प्रकार कर्म में लगे होते हैं, ज्ञानी व्यक्ति को भले कर्म करने की आवश्यकता न हो, फिर भी लोक शिक्षण के लिए आसक्तिरहित कर्म कर , आसक्ति रहित कर्म का उदाहरण अवश्य प्रस्तुत करे ।

हम सब का दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि ऐसे सद् शास्त्र के होते हुए भी "जल बीच मरत प्यासा रे धोबिया "
के उदाहरण बने हुए हैं ।

क्रमशः--------!
धन्यवाद प्रेषित ।

--सत्यनारायण पाण्डेय 


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