सुप्रभातः सर्वेषां सुहृदयानां सज्जनानां कृते ये गीता-ज्ञान-यज्ञे संलग्नाः सन्ति। अद्य ज्ञानकर्मसन्यासयोगोनाम चतुर्थोऽध्यायः ध्यातव्यमस्ति। ज्ञान संबलितं निष्काम कर्मं तु सर्वै: सर्वदा करणीयमिति तु सुनिश्चितमेव ! ज्ञानकर्मसन्यासयोग कथनेन निष्कामकर्मयोग्यस्यैव समर्थनं कृतं अस्ति!
प्रिय बन्धुगण!
जैसा कि हम जानते हैं कि चौथे अध्याय का नाम ज्ञानकर्मसन्यासयोग है! इसका मुख्य तत्व उस प्रकार के व्यक्ति की व्याख्या करता है जिसमें ज्ञान का अभ्युदय हो और जो अनासक्त हो कर कर्म के मार्ग का भी अनुयायी हो. इस अध्याय का मुख्य लक्ष्य ज्ञान और कर्म में सामंजस्य स्थापित करना ही है. इसे हम इस प्रकार भी समझ सकते हैं-- कर्म करते हुए कर्म फल का त्याग करने वाला और ज्ञान योग से ज्ञानी की बुद्धि का आश्रय लेने वाला व्यक्ति ही अपना और लोक का उद्धार करने में समर्थ हो सकता है.
तीसरे अध्याय में जिस कर्मयोग शास्त्र की चर्चा हुई थी उसे ही चौथे अध्याय में यह कहते हुए आरम्भ किया गया कि--
श्रीभगवानुवाच
इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम् ।
विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत् ॥ १ ॥
श्री भगवान बोले- मैंने इस अव्यय (अविनाशी, त्रिकालाबाधित) योग को सूर्यसे कहा था, सूर्य ने मनु को कहा और मनु ने राजा इक्ष्वाकु से कहा.
एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः ।
स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप ॥२॥
हे परंतप (शत्रुओं को तपानेवाले-अर्जुन) ! इस प्रकार परम्परा से प्राप्त इस योग को राजर्षि जानते थे; किंतु वह योग लंबे काल पश्चात् इस लोक से लुप्त हुआ।
स एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः ।
भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम् ॥३॥
तू मेरा भक्त और प्रिय सखा है, इसलिए वही पुरातन योग आज मैंने तुझको कहा है।
इस प्रकार भगवान ने अर्जुन को स्पष्ट किया है कि मैं कोई नए योग की चर्चा तुमसे नहीं कर रहा हूँ, यह तो अत्यंत पुरातन काल से चला आ रहा है. पर अनंत काल के अंतराल के कारण यह लुप्त सा हो गया है और उन्होंने स्पष्ट किया कि उन्होंने यह विद्या सूर्य को बताई थी, और सूर्य ने मनु को बताया और मनु ने समस्त मानवों के बीच इसका प्रचार प्रसार किया. इस प्रकार ज्ञान और कर्म की परंपरा का अध्यात्मिक सूत्र उस समय से आजतक सर्वत्र व्याप्त है, भले लोग उसका अनुसरण या उसे धारण करना भूल गए हैं, यह स्वाभाविक भी है कि जो नित्य के अभ्यास की चीज़ न हो उसे हम दैनंदिन जीवन के क्रियाक्लापों में नित्य स्थान न दें तो उसका धीरे धीरे लुप्त होना अवश्यम्भावी है !
अर्जुन के प्रश्न गीता के प्रथम अध्याय से अट्ठारहवें अध्याय तक स्वाभाविक एवं मानवोचित हैं, और जो प्रश्न उठ सकते हैं, ऐसे संदेहों का निराकरण करते हुए भगवान ने मानव हित में स्वयं ही उसका उत्तर भी दिया है! आगे के अध्यायों में नाना प्रकार की शंकाओं को दूर करने के लिए विभूतियोग, अक्षरब्रह्मयोग, ज्ञान विज्ञान योग, गुणत्रय विभाग योग, श्रद्धात्रय विभाग योग आदि के विवेचन क्रमशः प्रस्तुत करते हुए अंततः अट्ठारहवें अध्याय में मोक्ष सन्यास योग तक की यात्रा हम सब सार रूप में तो क्रमशः करेंगे ही लेकिन हमें अब तक जो एक निष्काम कर्मयोग का अनासक्त भाव से कर्म करने का सूत्र प्राप्त हुआ है उसे विस्मृत न होने दे. यह हमारे जीवन एवं आचरण का नित्य विषय बना रहे.
मानव मन की जितनी दौड़ होती है, उसी रूप में साथ रह रहे भगवान् कृष्ण के प्रति यह आशंका करना भी अर्जुन के लिए स्वाभाविक ही है कि सूर्य कब हुए पता नहीं और आपने (कृष्ण ने) सर्वप्रथम सूर्य को बताया और सूर्य ने मनु को बताया और मनु ने राजा इक्ष्वाकु को बताया और इक्ष्वाकु ने राज्याश्रित लोगों को बताया और इसी प्रकार यह परंपरा लोगों में विकसित हुई, यह मैं कैसे मान लूं क्यूँकि आपका जन्म तो सूर्य के बहुत बाद हुआ...
अपरं भवतो जन्म परं जन्म विवस्वतः ।
कथमेतद्विजानीयां त्वमादौ प्रोक्तवानिति ॥ ४ ॥
अर्जुन बोले- आपका जन्म तो अर्वाचीन है और सूर्यका जन्म प्राचीन है; तब मैं इस बातको कैसे समझूँ कि आपने (कल्पके आदिमें) सूर्यसे यह योग कहा था ?
क्रमशः