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सुप्रभातम्! जय भास्करः! ३१ :: सत्यनारायण पाण्डेय

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डॉ सत्यनारायण पाण्डेय 


सुप्रभातः सर्वेषां प्रथमोऽध्यायतः अष्टादशोध्यायपर्यन्तं
 गीतोज्ञानयात्रायां सहयात्रीणां कृते। 
कर्मयोगोनामतृतीयोऽध्याये समुपस्थितो वयम्।

प्रियबन्धुगण!
इस अध्याय के पांचवें श्लोक तक में यह स्पष्ट हो चुका है कि इस पृथ्वी लोक में कर्म अनिवार्य है, जो हठपूर्वक कर्म न करने की भी ठान लें तो प्रकृति उनसे बलात् कार्य करा लेती है, फिर शरीर यात्रा भी कर्म न करने वाले के लिए सम्भव नहीं।

अब कर्म की अनिवार्यता सिद्ध होने पर कर्म करते हुए कर्मबन्धन से मुक्ति का तरीका हमें समझना है, जो इस अध्याय का मुख्य प्रतिपाद्य है। छठे श्लोक से आवश्यकतानुसार हम क्रमशः आगे बढेंगे, पर इसी अध्याय के बीसवें श्लोक को हम देखें:---

कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः।
लोकसड्ग्रहमेवापि सम्पश्यन्कर्तुमर्हसि।।३/२०।।

राजा जनक से बढकर कोई योगी (ब्रह्मज्ञानी) नही हुआ, जनक सदृश अन्य ज्ञानियों ने भी अनासक्त भाव से कर्म करते हुए ही परमसिद्ध (मोक्ष) को प्राप्त हुए हैं। जिस ब्यक्ति को कुछ भी पाने की लालसा न भी हो, तो भी लोकसंग्रह अर्थात् लोक शिक्षण के लिए भी कर्म करना चाहिए। तात्पर्य कर्म किसी भी परिस्थिति में अनिवार्य है, करने की युक्ति पर सदा ध्यान होना चाहिए, फिर तो यह संसार सुख का सागर बन जाये यदि सारे लोग इस ओर प्रवृत्त हो जाएँ। दुखद है कि सब साधन रहते हम सब ने "श्रीमद्भगवद्गीता"ऐसे ग्रन्थ की पूजा आरती कर ही अपने कर्तव्य की वर्षों से "इतिश्री"समझ लिया है और स्वयं एवं औरों के जीवन को नारकीय बना रहे हैं।

भुख भी है और भोजन भी साथ में है, फिर अगर भोजन को उदरस्थ करने की विधि कोई न अपनाय और भूख से तड़पे तो पास मे स्थित भोजन का क्य दोष। हम मुख्य चिन्तन धारा से विमुख हो जानबुझकर दुःख भोग रहे हैं।

तो आइए तृतीय अध्याय की कर्म करने की रीति जान लें:---
कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्।
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते।।३/६।।

अर्थात् जो भी मनुष्य कर्मेन्द्रियों को हठ पूर्वक रोक तो लेता है पर उनके भोग्य विषयों का मन ही मन चिंतन करता ही रहता है, यह मिथ्याचार ही है।

यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन।
कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते।। ३/७।।

किन्तु हे अर्जुन! जो पुरूष मन से इन्द्रियों को वश में कर अनासक्त भाव सेसमस्त इन्द्रियों द्वारा कर्म का आचरण करता हुआ भी (कर्मबंधन का भागी नहीं होता) वह विशिष्ट कर्मयोगी है।

तात्पर्य यह है कि हमारी अपनी सामान्य या विशिष्ट कोई इच्छा नही, किसी कर्म के प्रति लगाव या विरोध नहीं, शास्त्र विहित कर्मों का सम्पादन कर्मयोग की विशेषता होती है। हम जिस क्षेत्र जिस संस्था या विभाग में काम करते हों, यदि वहां अपने जिम्मे आए कार्यों का हम बिना लागलपेट के सम्पादन करते हैं, तो वह योजना तो सफल होती ही है, हम खुद भी दोष के भागी नहीं बनते, यही तो निष्काम कर्मयोग है।
क्रमशः--

--सत्यनारायण पाण्डेय 


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