$ 0 0 जली हुई माचिस की तिल्लियों नेमुझसे कहा--सहेजो न मुझे भीजैसे तुम शब्दों को सहेजती होकविताओं को पूजती होगौर से देखो--संध्या दीप जला करलौ को मुझसे ही प्रज्वलित करत्याग देती हो मुझेमैं त्याज्य नहीं!!कविताएं सहेजती हो नमुझे भी सहेजोमैं भी कविता ही हूं कई बारउन कई कविताओं से श्रेष्ठजिन्हें तुमने सर आंखों पर बिठाया.***तो इन तिल्लियों की बात मान करमैंने उन्हेंहटाया नहीं इधर कुछ समय सेरहें ये भीकि सच कहती हैं येये भी कविता ही हैंप्रज्वलित कर लौ को खुद त्यक्त !!ज़िन्दगी !! तू भी कैसी है?!!पास पासफिर भी हर क्षण जीवन और मृत्यु में विभक्तकब किसका पलड़ा भारी हो जाएकौन जानता है !