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सुप्रभातम्! जय भास्करः! ३० :: सत्यनारायण पाण्डेय

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डॉ. सत्यनारायण पाण्डेय 


सुप्रभातः सर्वेषां सुहृदयाणां ये गीताज्ञानयात्रायां सहयोगिनः सन्ति।अद्याऽपि "कर्मयोगो नाम"तृतीयोऽध्यायैवसावधानतयावलोकनीयम्।
प्रिय बन्धुगण!
"व्यामिश्रेणेव वाक्येन-----"कह कर ज्ञानयोग एवं कर्मयोग को अलग अलग समझता हुआ अर्जुन यह कह रहा हो--"तदेकं वद निश्चित्य"पर आगे जाकर यह बात भगवान कृष्ण के मुखारविन्द से निकली वाणी से पूर्णतः सुस्पष्ट है कि किसी भी परिस्थिति में कर्म अनिवार्य हैं, चाहे कोई ज्ञानयोग के आश्रय में हो, भक्तियोग के आश्रय मे हो और कर्मयोग तो कर्म करने का स्वतः परिचायक है ही।


तीसरे श्लोक से थोड़ी मानसिक सतर्कता हम सबों के लिए आवश्यक होगी।इतना तो हमे स्वीकार करना ही होगा कि कर्म करना किसी भी परिस्थिति में अनिवार्य है और हम कर्म नहीं करने की दृढ इच्छा के बाद भी कर्म करने से बच नहीं सकते।क्या आप को यह नहीं पता?चुप बैठना भी आज एक क्रिया है।
किसी ने अपनें पांच साल के बेटे से पूछा "श्याम कहां हो?
श्याम :--अपने कमरे में।
क्या कर रहे हो?, श्याम:--बैठा हूं।
वह बैठने का काम तो कर ही रहा है,फिर हम कमर कस कर बैठ भी जांय तो हमारी जो पांच ज्ञानेन्द्रिय हैं ---आंख,नाक,कान,जिह्वाऔर त्वचा तो अपना काम क्रमशः-देखने,सुंघने,सुनने,स्वादऔर स्पर्शरूप कार्य चाहे अनचाहे करेंगे ही।अगर हम हठ पूर्वक सब कुछ बन्द करने की जिद्द में सांस लेना बन्द कर दें तो यह भी एक क्रिया ही कहलाएगी और मृत्युरूप परिणाम और फिर आवागमन का चक्कर।


इसी अध्याय के आठवें श्लोक की दूसरी पंक्ति में भगवान कृष्ण ने अर्जुन के भ्रम को दूर करते हुए कहा :----
"शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्ध्येदकर्मणः"
कर्म न करने वाले व्यक्ति की जन्म से मृत्यु तक की यात्रा भी सहज रूप से सम्भव नहीं हो पाती।अतः इसी श्लोक की पहली पंक्ति यह स्पष्ट संदेश देती है कि:--
"नियतं कुरू कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः।"इसलिए हे अर्जन तुम कर्म में लग जा,क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना ही श्रेष्ठ है।इन सब बातों को इस अध्याय के तीसरे श्लोक से आगे बढने से पहले रखनें का मेरा मात्र उद्देश्य यह है कि हम सब यह भली प्रकार समझ लें कि किसी योग को क्यों न अपनावें कर्म न करने का कहीं कोई विकल्प नहीं है। यही विकल्प बचता है कि हम शास्र विहित कर्मों को, कर्मकरने की कला को,कर्म करने की विधि को भली भांति समझ कर करें!


तो चलें हम इसी मनःस्थिति में गीताज्ञानयात्रा की आगे की यात्रा करें:-
श्रीभगवानुवाच
लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ।
ज्ञानयोगेन साड़्ख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्।।३/३।।
अर्थात् हे अर्जुन! इस मनुष्यलोक में दो प्रकार से होने वाली निष्ठा मेरे द्वरा दो प्रकार की कही गई है।उन में ज्ञानियों (सांख्यानां) की निष्ठा ज्ञानयोग से और योगियों(कर्मयोगियों) की निष्ठा कर्मयोग से है।
न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं पुरूषोऽश्नुते।
न च सन्नयासनादेव सिद्धिं समधिगच्छति।।३/४।।
अर्थात्, मनुष्य न तो कर्मों को आरम्भ किए बिना निष्कर्मता को प्राप्त होता है और न कर्मों के त्यागमात्र से ही सिद्धि को प्राप्त होता है।
आगे जाकर ये दोनों निष्ठा सांख्ययोगाश्रयी एवं कर्मयोगाश्रयी की कार्यपद्धति और स्पष्ट होगी,सांसारिक तौर पर सांख्ययोगी एवं कर्मयोगी के क्रिया कलाप एक जैसे प्रतीत हो सकते हैं,पर बारिकी से विचार करने पर पता चलेगा जहां एक ज्ञानयोगी"इन्द्रियाणीइन्द्रियार्थेभ्यः", "गुणागुणेषु वर्तन्ते इति मत्वा न सज्जते"की स्थिति में निष्कामभावना के कारण कर्म और कर्मफल के बन्धन से मुक्त हो जाते हैं, वहीं कर्मयोगी आसक्त भाव और फलाकांक्षा से कर्म करने के कारण बन्धन में पड़ जाता है।


अतः अगर कोई यह सोचता हो चलो हम कर्म करेंगे ही नहीं, फिर कर्मफल उदित होने का प्रश्न ही नहीं, यह निष्कर्मता नहीं है और न तो कर्मों के त्यागमात्र से कोई सिद्धि लाभ ही कर पाता है।


फिर कर्म करने की बाध्यता या अनिवार्यता का उल्लेख करते हुए इसी अध्याय के पांचवे श्लोक में भगवान कहते हैं:--


हे अर्जुन! सृष्टिगत या प्राकृत यह दृढ नियम है कि बिना कर्म किये कोई भी प्राणी क्षण भर भी रह ही नही सकता। क्योंकि हठपूर्वक बैठे व्यक्ति को भी नियति बलपूर्वक काम करा लेती है या प्रकृतिजन्यगुणों के अधीन हो वह कार्य करने को विवश हो जाता है:---
न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।
कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः।।३/५।।
फिर समझदारी पूर्वक कर्म करने की प्रवृत्ति क्यों न अपनावें।


क्रमशः--
धन्यवादेन सहितः प्रेष्यते।

--सत्यनारायण पाण्डेय 


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