ये बात फ़ैल गयी
अफ़वाह की तरह
जीवन हो गया है अब
एक कराह की तरह
हर मोड़ पर जैसे केवल
हमलावर ही खड़े हैं
रात तो रात दिन भी हो गया
अब अन्धकार की तरह
किस बात पर फक्र करें
किस शय पर नाज़ हो
घर घर नहीं रहा
सज गया बाज़ार की तरह
खुले हुए दरवाज़े
खुली हुई खिड़कियाँ
गूंजता है संगीत कोई
कातर आह की तरह
मन मेरा उदास है
खोया है बहुत रोया है
रंग क्यूँ लग रहे है सब आज
सफ़ेद और स्याह की तरह
क्यूँ नहीं खिलती कली कोई
किसी मासूम चाह की तरह
जीवन क्यूँ लगता है बस
एक कराह की तरह!