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Channel: अनुशील
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क्यूँ...?

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आँखें बंद हुईं और खुलीं
बस पलक झपकने जितना ही तो है जीवन


उस अंतराल में बीता जो हिस्सा एक क्षण का
उसी में जैसा सरसरा कर सरक गया जीवन


कितनी छोटी सी इकाई है समय की
कितना छोटा सा है जीवन


एक सांस आई और एक गयी
इतने में ही तो कई बार खो जाता है जीवन


जैसे बिजली कौंधी हो गगन में और हो गयी हो लुप्त तत्क्षण
उस क्षणिक परिघटना सा ही तो घटता जीवन


बादलों से गिरते हुए अतिउत्साहित बूंदें चटक गयीं ज़मीं पर
बुलबुलों सा ही तो होता है जीवन


न आने की खबर न जाने की तिथि निश्चित

कई मोड़ पर ठगा सा ही तो बस रह गया जीवन


झूठा है जो उसे सच मान बैठे हैं

और शाश्वत सत्य को आजीवन झुठलाते हैं हम  


मिथ्या दंभ को सेते हैं जीवनपर्यंत 

आत्मा पर कितना बोझ उठाते हैं हम 


इतना छोटा है, है इतना अविश्वश्नीय

तो फिर क्यूँ इतने सारे तिकड़म अपनाते हैं हम 


जब रहना ही नहीं है हमेशा के लिए 

क्यूँ और किसके लिए फिर इतना संचयन?


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