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सुप्रभातम्! जय भास्करः! २७ :: सत्यनारायण पाण्डेय

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सुप्रभातः सर्वेषां श्रीमद्भगवद्गीयायाः क्रमशः विषादयोगोनाम प्रथमोध्यायतः मोक्षसंन्यासयोगअष्टाध्यायपर्यन्तं सहयात्रायां ये यात्रिणः सहयोगिनः सन्ति तेषां कृते!

प्रिय बन्धु!
मैं प्रथमतः पुनः निवेदन करना चाहता हूं कि गीता के प्रत्येक शब्द व्याख्येय और धारण करने योग्य हैं, केवल समयाभाव और विस्तृतफलक की कमी और कम समय में मुख्य शिक्षा को ध्यान में सहेजने की दृष्टि से सार संक्षेप का अनुसरण किया जा रहा है।
कल तक द्वितीय अध्याय के ५७वें श्लोक तक की यात्रा कर चुके और कर्म की अनिवार्यता लगावरहित करने के निर्णय तक तो हम पहुंच चुके। स्थितप्रज्ञ की चर्चा आगे के श्लोकों में भी है:--
यततो ह्यपि कौन्तेय पुरूषस्य विपश्चितद। इन्द्रियानि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनृ।।६0।।
तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः।वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।६१।।


यहां यह अगाह किया गया है कि कर्म मार्ग में प्रवृत्त व्यक्ति भी यदि इन्द्रिय सुख के प्रति थोड़ा भी आकर्षित हुआ तो उसके मन को भी इन्द्रियां प्रभावित कर देती हैं। अतः इन्द्रियों को प्रयत्नपूर्वक संयमित करते हुए परमात्मबुद्धि होकर विषयों के चिन्तन से अपने को मुक्त रखने वाला ही स्थितप्रज्ञता को प्राप्त होता है यह स्मरण रखना चाहिए।
यहां हम सब के लिए ध्यान देने योग्य बात यह है कि, हमे अपने को सत्कर्मों मे व्यस्त रखना चाहिए क्योंकि खाली मन ही तो शैतान का घर कहा गया है!


मन बड़ा बलशाली होता है, पर यह निर्मल आईने की तरह भी है, इसके सामने से जो चीज गुजरेगी उसका बिम्ब उसपर बनना ही बनना है, तो ऐसे स्वच्छ और बलशाली मन को अच्छी ही चीजों से जोड़नें का प्रयास ही किया जाये। 

आगे के ६२ वें एवं ६३ वें श्लोक में यही तो स्पष्ट किया गया है-- अगर हम विषयभोग के चिन्तन में लगते हैं तो,संगता के कारण प्राप्ति की प्रबलता होगी, इच्छा पूरी न हुई तो क्रोध उत्पन्न होगा, क्रोध सम्मोहन पैदा करेगा, सम्मोहन से स्मृतिविभ्रम की स्थिति में बुद्धि का नाश होने से तो मनुष्य का पतन की गर्त में जाना सुनिश्चित है।

अतः  ६४ वें एवं ६५ वें श्लोक में एक सुगम मार्ग बतलाते हुए कहा गया कि "यदृच्छालाभ संतुष्टः"की तरह राग द्वेष से परे होकर इन्द्रिय से विषयों के प्रति आचरण करता हुआ अपने आप को वश में रखने वाला परम प्रसाद (प्रसन्नता) को प्राप्त हो जाता है।

यहां स्पष्टीकरण के लिए एक यह उदाहरण ले सकते हैं:--प्रजा की वृद्धि एवं पितृ ऋण से एक संतान के लिए सामाजिक व्यवस्था सराहनीय है, पर मन मानी बलात्कार है, निन्दनीय है, बन्धन का कारण है। भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा भी है:--

"धर्माविरूद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ।।७/११
अर्थात् धर्म के अविरूद्ध (धर्मसम्मत) काम (विषय ) भी सभी प्राणियों के अन्दर मेरा ही रूप है।

अतः तय हुआ शास्त्रसम्मत कर्मो का अभ्यास करते हुए सर्वत्र लगावरहित होकर यह इन्द्रियां ही इन्द्रियों में बरत रही हैं ! ऐसा मान कर चलने वाला व्यक्ति स्थिर प्रज्ञा वाला कहलाता है। यहां यों समझा जाये-- हमारी आंख रूप इन्द्रिय का काम है देखना, जैसे स्वच्छ दर्पण के सामने जो वस्तु जाएगी उसका उसमें विम्ब बनेगा, पर दर्पण की कोई इच्छा नहीं कि कौन सी वस्तु सामने लायी जाये, कौन सी नही, ठीक वैसे ही अपने सभी ज्ञानेन्द्रियों के प्रति सहज होते हुए आत्मवशी होकर विहित कर्मो में प्रवृत्त हों। मुक्तिमार्ग प्रशस्त होगा।

द्वितीय अध्याय समाप्ति पर है --६९ से ७२ चार श्लोंको की व्यख्या के साथ कल के आलेख में उपसंहार प्रस्तुत किया जाएगा।


जय श्रीकृष्ण!
क्रमशः---------

--सत्यनारायण पाण्डेय 


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