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डॉ. सत्यनारायण पाण्डेय |
सुप्रभातःसर्वेषांसहृदयानांकृतेये गीतायाः विषादयोगनाम प्रथमध्यायतः मोक्षस-न्यास योगाष्टादशाध्याय पर्यन्त यात्रायां रूचिं धारयन्ति।
कल की चर्चा यहां तक थी "योगस्थः कुरू कर्माण..."
हे अर्जुन! तुम लगाव रहित होकर कर्म में लग जा। कर्म की सफलता असफलता के बारे में व्यर्थ चिन्तन कर समय नष्ट न करजहां तक कर्म फल का प्रश्न है तो इस विषय में शास्र ही प्रमाणित करते हैं कि "नभुक्तं क्षीयते कर्म कल्प कोटिशतैरपि"अर्थात् करोड़ों कल्पों के बाद भी भुगते बिना समाप्त नहीं होते चाहे हमारे शुभकृत्यों के शुभ फल हों या कुकर्मजनित कुफल हों।
अबतक कर्म और कर्मफल दोनों की अनिवार्यता सिद्ध हुई। आगे द्वितीय अध्याय के अगले श्लोकों में भगवान् कृष्ण अर्जुन से कार्यसम्पदन की कला की विवेचना के क्रम में कहते हैं कि--हे अर्जुन!बुद्धिमान व्यक्ति अपने अनासक्त भाव के कारण अपने सुकृत और दुष्कृत्य दोनों को यहीं छोड़ देते हैं, इसलिए तुम भी योग युक्त होकर कर्म में लग जा। यह योग और कुछ नहीं "योगः कर्मसु कौशलम्"अर्थात्, कर्म की कुशलता ही तो योग है।
बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते। तस्मातद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम्।।५०।।
कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिणः।जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः पदं गच्छन्त्यनामयम् ।।५१।।
इक्यानवें श्लोक में यह स्पष्ट कर दिया गया कि कर्म के प्रति समर्पित व्यक्ति कर्म फल का यहीं त्याग करता हुआ, जन्म मृत्यु के बन्धन से मुक्त हो दोष रहित हो सात्त्विक लोक को प्राप्त होता है।
यहां हम जनसामान्य के लिए ध्यान देने योग्य बात यह है कि कर्म और कर्म फल दोनों अनिवार्य हैं। अनासक्त यानि लगाव रहित एवं फलाकांक्षा से रहित कर्म, बन्धन के कारण नहीं होते और प्रत्येक व्यक्ति इस भाव से कर्म करता हुआ "पदं गच्छन्त्यनामयम्"अनामयं =पवित्र स्थान प्राप्त कर लेता है। बस हमें कर्तव्यभाव से भावित हो कर्म पथ पर बढते जाना है ।
आगे अर्जुन नें भगवान् कृष्ण से स्थितप्रज्ञ का लक्षणा जानना चाहा है:-
स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव। स्थितधीः किंतु प्राप्त किमासीत व्रजेत किम्।।५४।।
स्थितप्रज्ञ व्यक्ति की सहज पहचान अर्जुन करना चाहता है ताकि सहज ढंग से वह भी स्थितप्रज्ञता को अपनाने की कोशिश कर सके ।यह हम सब के लिए भी सहजता से समझने की जरूरत है। अर्जुन पूछता है, हे कृष्ण! मुझे बताएं स्थितप्रज्ञ का लक्षण क्या है, समाधिस्थ व्यक्ति कैसा होता है ? जो व्यक्ति बुद्धियुक्त हो गया है--वह कैसे बोलता है ? कैसे खाता है ? और कैसे चलता है ? बड़े सहज ढ़ंग से वह स्थितप्रज्ञ का लक्षण जानना चाहता है, जिससे स्थितप्रज्ञ व्यक्ति की पहचान जन साधारण भी कर सकते हैं-- बोलने की शैली, भोजन का ढ़ंग, और फिर चलने के ढ़ंग के आधार पर।
श्रीभगवानुवाच
प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान्। आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते ।।५५।।
दुःखेष्वनुद्वग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः। वीतरागभयक्रोधः स्थितधीमुनिरूच्यते।।५६।।
यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम्। नाभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ।।५७।।
अर्थात!
श्री भगवान् बोले, हे अर्जुन! जिस काल में मनुष्य, मन में स्थित सम्पूर्ण कामनाओं को भली भाँति त्याग देता है, और मन से आत्म-स्वरुप का चिंतन करता हुआ उसी में संतुष्ट रहता है, उस काल में वह स्थितप्रज्ञ कहा जाता है.
दुःखों की प्राप्ति होने पर जिसके मन में उद्वेग नहीं होता, सुखों की प्राप्ति में सर्वथा निःस्पृह है तथा जिसके राग, भय और क्रोध नष्ट हो गए हैं, ऐसा मुनि स्थिर-बुद्धि कहा जाता है.
जो पुरुष सर्वत्र स्नेहरहित हुआ यदृछ्या (प्रारब्धवश) प्राप्त शुभ या अशुभ से न प्रसन्न होता है और न द्वेष करता है, उसकी बुद्धि स्थिर है!
सुगमता के लिए स्थितप्रज्ञ की मन:स्थिति हम सभी समझ सकें इसी दृष्टि से यहाँ अर्थसहित द्वितीय अध्याय के उपर्युक्त तीन श्लोक अर्थसहित दिए गए! यहाँ स्पष्ट है कि हमें केवल कामनाओं से विमुख होना है, कर्म से नहीं, दुःख-सुख में सामान होने का अभ्यास होना चाहिए भय और क्रोध कभी पास फटकने न पाए और उसी तरह शुभ के प्रति लगाव और अशुभ के प्रति दुराव हममे नहीं होना चाहिए, इसी मानसिक स्थिति को तो स्थितप्रज्ञता कहा गया है!
अंततः यह बात स्पष्ट होती है कि हमें लगावरहित होकर कर्म में ही निरत रहना है. हमारे द्वारा किया गया संयमित कर्म ही हमारा भाग्य/प्रारब्ध बनता है, अतः स्पष्ट है, कि भविष्य के निर्माण या मुक्ति मार्ग के लिए कर्म संपादन में सतर्कता और कर्मकुशलता ही स्थितप्रज्ञता की पहचान है!
अर्थात!
श्री भगवान् बोले, हे अर्जुन! जिस काल में मनुष्य, मन में स्थित सम्पूर्ण कामनाओं को भली भाँति त्याग देता है, और मन से आत्म-स्वरुप का चिंतन करता हुआ उसी में संतुष्ट रहता है, उस काल में वह स्थितप्रज्ञ कहा जाता है.
दुःखों की प्राप्ति होने पर जिसके मन में उद्वेग नहीं होता, सुखों की प्राप्ति में सर्वथा निःस्पृह है तथा जिसके राग, भय और क्रोध नष्ट हो गए हैं, ऐसा मुनि स्थिर-बुद्धि कहा जाता है.
जो पुरुष सर्वत्र स्नेहरहित हुआ यदृछ्या (प्रारब्धवश) प्राप्त शुभ या अशुभ से न प्रसन्न होता है और न द्वेष करता है, उसकी बुद्धि स्थिर है!
सुगमता के लिए स्थितप्रज्ञ की मन:स्थिति हम सभी समझ सकें इसी दृष्टि से यहाँ अर्थसहित द्वितीय अध्याय के उपर्युक्त तीन श्लोक अर्थसहित दिए गए! यहाँ स्पष्ट है कि हमें केवल कामनाओं से विमुख होना है, कर्म से नहीं, दुःख-सुख में सामान होने का अभ्यास होना चाहिए भय और क्रोध कभी पास फटकने न पाए और उसी तरह शुभ के प्रति लगाव और अशुभ के प्रति दुराव हममे नहीं होना चाहिए, इसी मानसिक स्थिति को तो स्थितप्रज्ञता कहा गया है!
अंततः यह बात स्पष्ट होती है कि हमें लगावरहित होकर कर्म में ही निरत रहना है. हमारे द्वारा किया गया संयमित कर्म ही हमारा भाग्य/प्रारब्ध बनता है, अतः स्पष्ट है, कि भविष्य के निर्माण या मुक्ति मार्ग के लिए कर्म संपादन में सतर्कता और कर्मकुशलता ही स्थितप्रज्ञता की पहचान है!
क्रमशः
सधन्यवाद!
--सत्यनारायण पाण्डेय