$ 0 0 रिश्तों की जितनी परिभाषाएं थींसबकी अपनी सीमा थीजो नाम दिए जा सकते थेवो सब कहीं न कहीं बौने थेजुड़ाव अनजान थाअनाम थाहमने उसेवैसा ही रहने दियाजब ख़ामोशी थी तो खामोशियाँ सुनी,ख़ामोशियों को कहने दियायूँ चलते-चलते सफ़र मेंरिश्तों के गगन परअपनेपन के कई सितारे टांकेजीवन के सुनसान मेंकितने हीमर्मान्तक अनुभूतियों के दंश आंकेइस तरहकविता का आँगन हमें मिलाप्रेरणा के प्रताप सेसुमन खिला.हमने जाना-बियाबान ख़ाली पांवों के दर्द से रो पड़े-ऐसा होता भी हैबहुत दुःख दंश है यहाँपर यही वो संसार हैजहाँ एक दूजे के दुःख कोअपना मान-मन रोता भी है.