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सुप्रभातम्! जय भास्करः! २५ :: सत्यनारायण पाण्डेय



सुप्रभातःसर्वेषां गीतायाः विषादयोगोनां प्रथमोऽध्यायतः मोक्षसंन्यासयोगोनामष्टादशाध्यायपर्यन्तं यात्राक्रमे संलग्नानां सुहृदाणां कृते!


मलनिर्मोचनं पुंसां जलस्नानं दिने दिने।
सकृद् गीताम्भसि स्नानं संसारमलनाशनम्।।

तात्पर्य स्पष्ट है कि शारीरिक मलशुद्धि के लिए नित्य स्नान की आवश्यकता होती है पर गीता रुपी जल में एक बार स्नान कर लेने से भी चित्त में व्याप्त सांसारिक मल सदा के लिए धुल जाते हैं. 

आगे मोहग्रस्त अर्जुन को उद्बोधित करते हुए श्रीकृष्ण कहते हैं :-

भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम्‌ । व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते ॥ (४४)
भावार्थ:: जो मनुष्य इन्द्रियों के भोग तथा भौतिक ऎश्वर्य के प्रति आसक्त होते हैं, उनमें ईश्वर निर्धारित व्यवस्था के प्रति दृड़-संकल्पित बुद्धि नहीं होती और वह सांसारिक हानि-लाभ को ही सत्य मानता हुआ श्रेय की ओर प्रवृत्त नहीं हो पाता. आगे ४५वें श्लोक में भगवान श्री कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि, हे अर्जुन! वेद भी तीन गुणों (सत्व, रज, तम) की ही व्याख्या करते हैं  तुम इन तीन गुणों से ऊपर उठ कर द्वन्द रहित हो नित्य ही सतोगुण में स्थित होकर योग और क्षेम के प्रति चिंता मुक्त हो आत्म परायण हो जाओ, अर्थात् आत्मबुद्धि से कर्तव्यपरायण हो जा! 

त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन । निर्द्वन्द्वो नित्यसत्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्‌ ॥ (४५)

आगे कर्मफल के प्राप्ति के प्रति संदिग्ध अर्जुन को समझाते हुए कृष्ण कहते हैं कि-- 

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन । मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि ॥ (४७)

भावार्थ:: तेरा कर्म करने में ही अधिकार है, उसके फलों में अधिकार नहीं है, इसलिए तू न तो अपने-आप को कर्मों के फलों का कारण समझ और न ही कर्म न करने में तेरी आसक्ति ही हो। यह श्लोक सामान्य जनसमुदाय में यह संदेह उत्पन्न करता रहा है कि जब हमारा फल में अधिकार ही नहीं है तो हम कर्म में प्रवृत्त क्यूँ हों. यहाँ विशेष रूप से इस श्लोक की दूसरी पंक्ति पर भी ध्यान जाना चाहिए "मा कर्मफलहेतु:भू:"अर्थात् तुम कर्म संपादन में अपने को कारण मत समझो, तात्पर्य यह हुआ कि तुम मात्र माध्यम हो, और न तो तुम्हें कर्मों के न करने के प्रति ही लगाव हो. पहली पंक्ति में जो यह कहा गया "कर्मण्येवाधिकारस्ते"यानि कर्म मात्र में ही तुम्हारा लगाव होना चाहिए, फल में नहीं ! यहाँ अधिकांश लोग भ्रमित हो जाते हैं कि जब फल प्राप्ति में अधिकार ही नहीं होगा तो कोई कर्म करने के लिए प्रवृत्त ही क्यूँ हो. यहाँ हमें एक उदहारण से इसे समझना चाहिए-- मान लें एक फलदार वृक्ष ही हम लगाना चाहते हैं तो उसे भूमि में आरोपित कर सुरक्षा प्रदान करना हमारे कार्यक्षेत्र में आता है, अगर हम फल की चिंता न भी करें और नित्य यह न भी दोहराते रहे कि "पेड़ में फल लग जाए, फल लग जाए", तो भी समय पर वृक्ष अवश्य ही फलेगा, यह सुनिश्चित है. ठीक उसी प्रकार कृषक का काम बीजवपण करना है, और फसल की सेवा और सुरक्षा रूप कर्तव्य का पालन ही उसके अधिकार क्षेत्र में है. फल स्वतः मिलेगा साथ ही वह फल कई अन्य बातों पर निर्भर है जिसपर मनुष्य का कोई वश नहीं, लेकिन कर्म करना निश्चित रूप से प्रत्येक व्यक्ति के अधिकार क्षेत्र में है, इसमें कोई संशय नहीं. इसलिए कृष्ण अर्जुन को स्पष्ट करते हुए कहते हैं, कि तुम्हारा अधिकार सिर्फ कर्म करने में है, फल के व्यर्थ चिंतन में नहीं. न तो तुम्हे अपने को कर्म संपादन का हेतु मानना है, और न ही कर्म न करने के प्रति लगाव ही तुम्हे होना चाहिए. इस प्रकार जनसाधारण के लिए भी यह तथ्य सहज सुगम है.

आगे ४८वें श्लोक में कृष्ण कहते हैं, कि हे अर्जुन! तुम आसक्ति (लगाव) रहित होकर कर्म की सिद्धि अथवा असिद्धि में समान भाव रखते हुए कर्म करने में प्रवृत्त हो जा. यही समत्व योग है.

योगस्थः कुरु कर्माणि संग त्यक्त्वा धनंजय । सिद्धयसिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ॥ (४८)

अब यहाँ किसी संशय की गुंजाईश नहीं है कि हमें क्या करना चाहिए. कर्म करने की अनिवार्यता प्रत्येक व्यक्ति के लिए सुनिश्चित है. वह कर्म किये बिना रह भी नहीं सकता. मात्र इतना ही ध्यान रखना चाहिए कि हमें जो कुछ करना है लगाव रहित हो कर, कर्तव्य भाव से, विहित कर्मों को करते जाना है. इस प्रकार निर्द्वंद भाव से कर्म करना ही हमारे अधिकार क्षेत्र में आता है, यह स्पष्ट है!!

क्रमशः 
सधन्यवाद!

सत्यनारायण पाण्डेय


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