↧
सुप्रभातम्! जय भास्करः! २५ :: सत्यनारायण पाण्डेय
त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन । निर्द्वन्द्वो नित्यसत्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान् ॥ (४५)
भावार्थ:: तेरा कर्म करने में ही अधिकार है, उसके फलों में अधिकार नहीं है, इसलिए तू न तो अपने-आप को कर्मों के फलों का कारण समझ और न ही कर्म न करने में तेरी आसक्ति ही हो। यह श्लोक सामान्य जनसमुदाय में यह संदेह उत्पन्न करता रहा है कि जब हमारा फल में अधिकार ही नहीं है तो हम कर्म में प्रवृत्त क्यूँ हों. यहाँ विशेष रूप से इस श्लोक की दूसरी पंक्ति पर भी ध्यान जाना चाहिए "मा कर्मफलहेतु:भू:"अर्थात् तुम कर्म संपादन में अपने को कारण मत समझो, तात्पर्य यह हुआ कि तुम मात्र माध्यम हो, और न तो तुम्हें कर्मों के न करने के प्रति ही लगाव हो. पहली पंक्ति में जो यह कहा गया "कर्मण्येवाधिकारस्ते"यानि कर्म मात्र में ही तुम्हारा लगाव होना चाहिए, फल में नहीं ! यहाँ अधिकांश लोग भ्रमित हो जाते हैं कि जब फल प्राप्ति में अधिकार ही नहीं होगा तो कोई कर्म करने के लिए प्रवृत्त ही क्यूँ हो. यहाँ हमें एक उदहारण से इसे समझना चाहिए-- मान लें एक फलदार वृक्ष ही हम लगाना चाहते हैं तो उसे भूमि में आरोपित कर सुरक्षा प्रदान करना हमारे कार्यक्षेत्र में आता है, अगर हम फल की चिंता न भी करें और नित्य यह न भी दोहराते रहे कि "पेड़ में फल लग जाए, फल लग जाए", तो भी समय पर वृक्ष अवश्य ही फलेगा, यह सुनिश्चित है. ठीक उसी प्रकार कृषक का काम बीजवपण करना है, और फसल की सेवा और सुरक्षा रूप कर्तव्य का पालन ही उसके अधिकार क्षेत्र में है. फल स्वतः मिलेगा साथ ही वह फल कई अन्य बातों पर निर्भर है जिसपर मनुष्य का कोई वश नहीं, लेकिन कर्म करना निश्चित रूप से प्रत्येक व्यक्ति के अधिकार क्षेत्र में है, इसमें कोई संशय नहीं. इसलिए कृष्ण अर्जुन को स्पष्ट करते हुए कहते हैं, कि तुम्हारा अधिकार सिर्फ कर्म करने में है, फल के व्यर्थ चिंतन में नहीं. न तो तुम्हे अपने को कर्म संपादन का हेतु मानना है, और न ही कर्म न करने के प्रति लगाव ही तुम्हे होना चाहिए. इस प्रकार जनसाधारण के लिए भी यह तथ्य सहज सुगम है.
↧