सुप्रभातःसर्वेषां गीतायाः विषादयोगोनां प्रथमोऽध्यायतः मोक्षसंन्यासयोगोनामष्टादशाध्यायपर्यन्तं यात्राक्रमे संलग्नानां सुहृदाणां कृते!
जी! हृदय की क्षुद्र दुर्बलता ही तो हमें भ्रमित और मोहित करती है, हम सदा सतर्क रहें, उसे पास फटकने भी न दें। इसीलिए तो भगवान् कृष्ण ने, अर्जुन को मोह में ग्रस्त देख, सर्वप्रथम यही कहा:--
"क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप।"
ऐ परंतप! हृदय की क्षुद्र दुर्बलता का परित्याग कर उठ खड़े हो जा। यह अर्जुन के लिए ही सम्बोधन नहीं है, संसार का हर मनुष्य, स्त्री हो या पुरूष, सभी शुद्ध बुद्ध निरंजन ही तो हैं, बस अपनी पहचान ही तो कायम रखने की बात है, यदि परिवेश हृदय में क्षुद्र दुर्बलता ला भी दे, तो अपनी सतर्कता इतनी तीव्र हो कि--
"क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं-"की याद के साथ पथ पर अग्रसर हो जाए।गीता की व्याख्या करने वाले विद्वानों ने गीता के अठारहों अध्याय में मुख्य रूप से तीन प्रकार के योग की चर्चा की है! वे क्रमशः हैं:--ज्ञान योग, कर्म योग एवं भक्ति योग। पर इन तीनो को अध्याय के निश्चित विभागों में विभक्तकर देख पाना सम्भव नहीं, ये तीनों सम्पूर्ण गीता में सर्वत्र समाहित हैं।आधुनिक व्यख्याकारों में डाॅ .राधाकृष्णण (जो हमारे देश राष्टपति भी रहे है), दर्शन शास्र के उद्भट विद्वान् ने भी गीता की व्याख्या लिखते हुए यह स्पष्ट किया है कि गीता "ज्ञान संवलित कर्म योग शास्र है". सच तो यही है कि ज्ञानयुक्त कर्म ही तो कर्मफल बन्धन से मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करता है।
आदि शंकराचार्य ने भी स्पष्ट कहा है:-"ज्ञानानृते न मुक्ति"
गीता भी कहती है:--"न हि ज्ञानेन सदृशमिह विद्यते"अर्थात् ज्ञान के बिना मुक्ति नहीं हो सकती,"ज्ञान के समान पवित्र यहां कुछ भी नहीं। यहां हमें यह चिन्ता नहीं होनी चाहिए कि-"हम तो ज्ञानी नहीं हैं! हमारा क्या होगा ?"इत्यादि...
हमें आश्वस्त होना चाहिए वह ज्ञान जन्म से ही हमे प्राप्त होता है, पर मोहजाल में पड़ कर "अज्ञानावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः"अपने मूलरूप को भूल से जाते हैं, यहीं तो सावधानी बरतने की जरूरत है हमें।
माना विषाद वुद्धिमान को भी नकारात्मक सोच वाला बना देता है, पर यहां इतनी सजगता तो जरूर होनी चाहिए कि हम अपने मित्र से, हितैषी सगे संबंधी से अपनी समस्या तो बताएं।
अर्जुन अपने सखा सम्प्रति सारथी और मार्गदर्शक भी--भगवान् कृष्ण से कहते हैं:--
कार्पण्यदोषोपहतस्वभाव"पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः।यच्छ्रेयः स्यन्निश्चितं ब्रूहि तन्मे।शिष्यस्तेऽहं शाधि मां प्रपन्नम्। २/७।।
हे कृष्ण ! मेरी बुद्धि उपहत हो गई है, मैं खुद अच्छा बुरा सोच पाने में असमर्थ हो रहा हूं। मै तुम्हारी शरण मे हूं, तेरा शिष्यत्व ग्रहण करता हूं, आप मुझे समझायें।
बस यही तो आरम्भिक मूल मंत्र है, जैसे बुद्धि भ्रमित् हो तुरंत किसी नजदीकी हितैषी के साथ उठते विचारों को बांटो, परस्पर संवाद से रास्ता निकल आएगा, विपदा टल जाएगी। कृष्ण अर्जुन से कहते हैं:--
"अशोच्यानन्वशोचस्त्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसेगतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः ।
अर्जुन! एक ओर तो तुम ज्ञान की बड़ी-बड़ी बातें कर रहे हो, तो दूसरी ओर ऐसी वैसी बातों में उलझ गए हो। तुम वैसी बातों में ब्यर्थ उलझ गए हो जिसके बारे में पण्डित् जन सोचते ही नहीं। हम सब की स्थिति भी यही होती है, व्यर्थ के चिन्तन में उलझाव, और इसी से तो बचना है।कुछ ऐसी चीजें भी होती हैं जिसमें बदलाव नहीं लाया जा सकता। उसे सहज रूप में स्वीकारना ही एकमात्र उपाय है, वहां व्यर्थ का हठ कर खुद को और दूसरों को परेशान करना कौन सी बुद्धिमानी है ?
यथा:--
"देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा ।तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति।।१३।।
मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः।आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत।।१४।।
१३वें श्लोक में यह कहा गया है कि शरीरधारी आत्मा शरीर के विकास के साथ और बालक, युवक और वृधावस्था को क्रमशः प्राप्त करता जाता है परन्तु कहीं भी उसे इस क्रमशः विकास के प्रति चिंता नहीं होती. ठीक उसी तरह एक समय में वृद्धावस्था के बात मृत्यु का आना स्वाभाविक है. फिर मृत्यु की चिंता अनावश्यक है क्यूंकि जन्म से मृत्यु तक यह स्वाभाविक प्रक्रिया है. पुनः चौदहवें श्लोक में बताया गया है कि शीत, घाम, सुख, दुःख -- ये सभी आने और जाने वाले हैं और एक निश्चित कालावधि तक ही टिकते हैं. इसलिए इन्हें सहन करना चाहिए. ऐसे अवसरों पर व्यर्थ उद्विग्न होने की ज़रुरत नहीं है.
आगे के १५वें श्लोक में कहा है--
यं हि न व्यथयन्त्येते पुरूषं पुरूषर्षभ।
समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते।।१५।।
यहां यह कहा गया कि, हे पुरुष श्रेष्ठअर्जुन! जो व्यक्ति सुख दुख में धैर्य धारण करता है और व्यथित नहीं होता वही अमृतत्व की प्राप्ति कर पाता है. संघर्ष ही जीवन है और जीवन संघर्ष से भरा है, यह हम सुनते आ रहे हैं फिर थोड़ी सी ही कठिनाई आने पर हम घबरा जाएं यह कहां तक उचित है?!
युद्ध में मरने और मारने की अर्जुन की चिन्ता का समन करते हुए दूसरे अध्याय के तीसवें श्लोक में भगवान् कहते हैं कि --हे अर्जुन !प्रत्येक प्राणी के शरीर में रहने वाली आत्मा अवध्य है। अतः यह चिन्ता का विषय ही नही है। प्रकारांतर से भगवान यह कहना चाह रहे हैं कि तुम्हें बिना किसी अन्य चिंता के अपने कर्म पथ पर बढ़ते रहना चाहिए बिना राग द्वेष के अपने कार्य संपादन में लगना ही उचित है पुनः ३१ वें श्लोक में कृष्ण ने अर्जुन से कहा तुम क्षत्रिय हो और युद्ध करना क्षत्रिय का धर्म है अतः तुम्हें विचलित नहीं होना चाहिए! एक क्षत्रिय के लिए युद्ध से बढ़कर श्रेष्ठ सिद्धि देने वाला और कोई दूसरा कार्य नहीं हो सकता! यह युद्ध भी तुमने स्वयं आमंत्रित नहीं किया है बल्कि यह स्वतः उपस्थित है जो स्वर्ग के द्वार को भी खोलने वाला है! हे अर्जुन सुखी क्षत्रिय को ही ऐसा अवसर प्राप्त होता है:--
"स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि।
धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य विद्यते।।३१ ।।
यदृच्छया चोपपन्नं स्वर्गद्वारमपावृतम्।
सुखिनः क्षत्रिया: पार्थ लभन्ते युद्धमीदृशम्।।३२।।
पुनः भगवान कृष्ण अर्जुन को कहते हैं कि अगर मोहवश तुम यह युद्ध नहीं करते हो तो क्षत्रिय के युद्ध रूपी धर्म को न करने के कारण पाप के भी भागी बनोगे, लोग तुम्हारी शिकायत करेंगे! क्या तुम्हारी यह अपकीर्ति मौत से बढ़कर नहीं होगी ? लोग ऐसा मानेंगे कि तुम भयवश युद्ध से भाग गए हो. क्या तुम्हारे जैसे वीर योद्धा के लिए यह दुखद नहीं होगा ?
पुनः अर्जुन को समझाते हुए कृष्ण कहते हैं कि युद्ध में अगर तुम मारे जाते हो तो तुम्हें सीधे स्वर्ग प्राप्त होगा और यदि विजयी हुए तो राज्य का सुख भोगोगे. इसलिए, हे अर्जुन! क्षत्रिय के लिए सहज रुप से प्राप्त युद्ध से मुख मत मोड़ो और युद्ध के लिए निश्चय कर उठ खड़े हो जा! तुम सुख-दुख और लाभ-हानि को एक समान समझो!
युद्ध में तुम हारोगे या जीतोगे इस चिंता को छोड़कर कर्तव्य पथ पर बढ़ते हुए युद्ध के लिए तैयार होओ! ऐसी परिस्थिति में तुम पाप के भागी नहीं बनोगे!
यहां इस बात पर भगवान ने विशेष बल दिया है कि हमें हानि-लाभ, जय-पराजय, सुख-दुख से ऊपर उठकर केवल कर्तव्य पथ पर बढ़ने की चेष्टा करनी चाहिए, यही श्रेयस्कर है! कर्तव्य पथ से विचलन ही अव्यवस्था को जन्म देता है और सबों के लिए संकट पैदा कर देता है! अतः हमें इस बात का ख्याल रखना चाहिए कि चाहे अपने प्राण कंठ में ही क्यों ना हो हम अपने कर्तव्य से कभी विचलित नहीं हों!
अन्यत्र कहा भी है:--
"कर्तव्यमेव कर्तव्यं प्राणं कण्ठगतैरपि।
अकर्तव्यं नैव कर्तव्यं प्राणं कण्ठगतैरपि।।
स्वारस्य यह है कि कर्तव्य पालन के प्रति समर्पण ही हम में से प्रत्येक का अभीष्ट होना चाहिए। कर्तव्यपालन में हानि-लाभ, सुख-दुःख, जय-पराजय, सफलता-असफलता के बारे में सोचने की जरूरत ही नहीं।बात सही भी है अगर हम सभी निर्धारित सिद्धान्त और व्यवस्था के अनुरूप व्यर्थ के सोच में न पड़ कर्मपथ में अग्रसर हो जाएँ तो सर्वत्र सुव्यवस्था कायम हो जाय और रामराज्य की कल्पना साकार हो उठे।
सधन्यवाद प्रेषित !
--सत्यनारायण पाण्डेय
सुप्रभातःसर्वेषां गीतायाः विषादयोगोनां प्रथमोऽध्यायतः मोक्षसंन्यासयोगोनामष्टादशाध्यायपर्यन्तं यात्राक्रमे संलग्नानां सुहृदाणां कृते!
कार्पण्यदोषोपहतस्वभाव
१३वें श्लोक में यह कहा गया है कि शरीरधारी आत्मा शरीर के विकास के साथ और बालक, युवक और वृधावस्था को क्रमशः प्राप्त करता जाता है परन्तु कहीं भी उसे इस क्रमशः विकास के प्रति चिंता नहीं होती. ठीक उसी तरह एक समय में वृद्धावस्था के बात मृत्यु का आना स्वाभाविक है. फिर मृत्यु की चिंता अनावश्यक है क्यूंकि जन्म से मृत्यु तक यह स्वाभाविक प्रक्रिया है. पुनः चौदहवें श्लोक में बताया गया है कि शीत, घाम, सुख, दुःख -- ये सभी आने और जाने वाले हैं और एक निश्चित कालावधि तक ही टिकते हैं. इसलिए इन्हें सहन करना चाहिए. ऐसे अवसरों पर व्यर्थ उद्विग्न होने की ज़रुरत नहीं है.
आगे के १५वें श्लोक में कहा है--
यं हि न व्यथयन्त्येते पुरूषं पुरूषर्षभ।
समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते।।१५।।
यहां यह कहा गया कि, हे पुरुष श्रेष्ठअर्जुन! जो व्यक्ति सुख दुख में धैर्य धारण करता है और व्यथित नहीं होता वही अमृतत्व की प्राप्ति कर पाता है. संघर्ष ही जीवन है और जीवन संघर्ष से भरा है, यह हम सुनते आ रहे हैं फिर थोड़ी सी ही कठिनाई आने पर हम घबरा जाएं यह कहां तक उचित है?!
युद्ध में मरने और मारने की अर्जुन की चिन्ता का समन करते हुए दूसरे अध्याय के तीसवें श्लोक में भगवान् कहते हैं कि --हे अर्जुन !प्रत्येक प्राणी के शरीर में रहने वाली आत्मा अवध्य है। अतः यह चिन्ता का विषय ही नही है। प्रकारांतर से भगवान यह कहना चाह रहे हैं कि तुम्हें बिना किसी अन्य चिंता के अपने कर्म पथ पर बढ़ते रहना चाहिए बिना राग द्वेष के अपने कार्य संपादन में लगना ही उचित है पुनः ३१ वें श्लोक में कृष्ण ने अर्जुन से कहा तुम क्षत्रिय हो और युद्ध करना क्षत्रिय का धर्म है अतः तुम्हें विचलित नहीं होना चाहिए! एक क्षत्रिय के लिए युद्ध से बढ़कर श्रेष्ठ सिद्धि देने वाला और कोई दूसरा कार्य नहीं हो सकता! यह युद्ध भी तुमने स्वयं आमंत्रित नहीं किया है बल्कि यह स्वतः उपस्थित है जो स्वर्ग के द्वार को भी खोलने वाला है! हे अर्जुन सुखी क्षत्रिय को ही ऐसा अवसर प्राप्त होता है:--
"स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि।
धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य विद्यते।।३१ ।।
यदृच्छया चोपपन्नं स्वर्गद्वारमपावृतम्।
सुखिनः क्षत्रिया: पार्थ लभन्ते युद्धमीदृशम्।।३२।।
पुनः भगवान कृष्ण अर्जुन को कहते हैं कि अगर मोहवश तुम यह युद्ध नहीं करते हो तो क्षत्रिय के युद्ध रूपी धर्म को न करने के कारण पाप के भी भागी बनोगे, लोग तुम्हारी शिकायत करेंगे! क्या तुम्हारी यह अपकीर्ति मौत से बढ़कर नहीं होगी ? लोग ऐसा मानेंगे कि तुम भयवश युद्ध से भाग गए हो. क्या तुम्हारे जैसे वीर योद्धा के लिए यह दुखद नहीं होगा ?
पुनः अर्जुन को समझाते हुए कृष्ण कहते हैं कि युद्ध में अगर तुम मारे जाते हो तो तुम्हें सीधे स्वर्ग प्राप्त होगा और यदि विजयी हुए तो राज्य का सुख भोगोगे. इसलिए, हे अर्जुन! क्षत्रिय के लिए सहज रुप से प्राप्त युद्ध से मुख मत मोड़ो और युद्ध के लिए निश्चय कर उठ खड़े हो जा! तुम सुख-दुख और लाभ-हानि को एक समान समझो!
युद्ध में तुम हारोगे या जीतोगे इस चिंता को छोड़कर कर्तव्य पथ पर बढ़ते हुए युद्ध के लिए तैयार होओ! ऐसी परिस्थिति में तुम पाप के भागी नहीं बनोगे!
यहां इस बात पर भगवान ने विशेष बल दिया है कि हमें हानि-लाभ, जय-पराजय, सुख-दुख से ऊपर उठकर केवल कर्तव्य पथ पर बढ़ने की चेष्टा करनी चाहिए, यही श्रेयस्कर है! कर्तव्य पथ से विचलन ही अव्यवस्था को जन्म देता है और सबों के लिए संकट पैदा कर देता है! अतः हमें इस बात का ख्याल रखना चाहिए कि चाहे अपने प्राण कंठ में ही क्यों ना हो हम अपने कर्तव्य से कभी विचलित नहीं हों!
अन्यत्र कहा भी है:--
"कर्तव्यमेव कर्तव्यं प्राणं कण्ठगतैरपि।
अकर्तव्यं नैव कर्तव्यं प्राणं कण्ठगतैरपि।।
स्वारस्य यह है कि कर्तव्य पालन के प्रति समर्पण ही हम में से प्रत्येक का अभीष्ट होना चाहिए। कर्तव्यपालन में हानि-लाभ, सुख-दुःख, जय-पराजय, सफलता-असफलता के बारे में सोचने की जरूरत ही नहीं।बात सही भी है अगर हम सभी निर्धारित सिद्धान्त और व्यवस्था के अनुरूप व्यर्थ के सोच में न पड़ कर्मपथ में अग्रसर हो जाएँ तो सर्वत्र सुव्यवस्था कायम हो जाय और रामराज्य की कल्पना साकार हो उठे।
सधन्यवाद प्रेषित !
--सत्यनारायण पाण्डेय