रेल
धीरे धीरे
बढती है गंतव्य की ओर
कितने ही दृश्य
यादों में संजोने
यादें
जिनका होना है
न कोई ओर न छोर
बस भागते हुए ही बीतनी है रातें
भागते हुए ही होती है भोर
कभी तो ठहर, ज़िन्दगी!
किसी ठौर
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हर पड़ाव से बढ़ते हुए
वहीँ कहीं थोड़ा सा
छूट जाते हैं हम
और यूँ छूटते-छूटते एक दिन
ख़त्म हो जानी है यात्रा हमेशा के लिए
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उस एकांत में
विराट पर्वत की
अचलता महसूस की
अथाह पानी के
बहते निर्मल स्वरूप को
आत्मसात किया
पत्तों के हरेपन में
दर्द की हूक सुनी
बारिश की बूंदों में
नेह के उज्ज्वल इंद्रधनुषी रंग देखे
इन सब देखने में
अपनी लघुता भी देखी
प्रकृति के यूं होने की सार्थकता महसूस करते हुए
अपने होने की निरर्थकता को भी जाना
कि यात्राएं हमें हमारे सच तक ही तो ले जाती हैं
हर यात्रा वस्तुत: खुद से खुद की यात्रा ही तो है !!
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किस सदी के ईंट पत्थर
ये भी एक अद्भुत मंज़र
इतिहास इन किलों में मुस्कुराता है
अंधेरा यहां, प्रकाश का ही, प्रतिरूप हो जाता है !!
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