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सुप्रभातम्! जय भास्करः! २३ :: सत्यनारायण पाण्डेय

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Dr.S.N.Pandey


सुप्रभातःसर्वेषां जीवनयात्रायां सुगमतापूर्वकं जीवनं

यापयित्वामोक्षमवाप्नोतुमिच्छन्ति ।


प्रिय बन्धुगण!
कल विषादयोगनाम प्रथम अध्याय का महत्व हम सब ने ज्ञान प्रप्ति की आधारभूमि के रूप में देखा।


गीता और गीता के प्रवक्ता श्रीकृष्ण सिर्फ और सिर्फ अर्जुन के लिए काऊंसलर(उपदेशक या सलाकार)नहीं हैं।यह तो कालजयीरचना है और जीवन पथ में विचलित,अशांत,किंकर्तव्य विमूढ मानव मात्र के काऊंसलिग केलिए त्रिकालमें उपयोगी है और प्रलयान्त तक रहेगा।क्या यह दुखद होने के साथ चिन्ता जनक नहीं है कि औषधि झोलि में रख उदरस्थ न कर पाने की कला से अपरिचित खुद आत्महन्ता बन रहे हैं,हजारों वर्ष पूर्व गीता आई तब से हजारों लोगों ने उसे सर्वसाधारण केलिए सहज बनाने के क्रम में टीकायें भी लिखीं हैं।


उन्नीसवीशदी के विद्वत्प्रवर बालगंगाधर तिलक ने गीता की विद्वत्ता पूर्ण व्याख्या की ,तो बीसवीशदी में महात्मा गांधी ने सर्वसाधारण केलिए बोध गम्य और सहज व्याख्या देने की चेष्टा की थी।


महात्मागंधी की एक पुस्तक "गीता-माता"है, उसमें उन्होनें लिखा है कि गीतामाता एक ऐसी माता हैं, जिनकी शरण में मैं जब भी विकट से विकट परिस्थिति में गया खाली हाथ नहीं लौटा।

सम्भव है आर्थिक रूप से असमर्थ जन्मदेनेवाली मां भले संतान की इच्छ पूरी करने में समर्थ न होपए पर गीतामाता खाली नहीं लौटातीं!
गीता राष्ट्रियस्तर पर सर्वसाधारण के दैनन्दिन जीवन का विषय बन जाय तो "किकर्तव्यविमूढ"आज के युवक, युवती, किसान, मजदूर, धनिक या गरीब जो ज्ञान या समझदारी के अभाव में बरबस आत्महन्ता बन जाते हैं, वह पूर्णतः रूक जाय, ऐसा मेरा दृढ विश्वास है।
प्रथम अध्याय में ४७ श्लोक हैं।मैं ने सिर्फ अर्जुन के विषादग्स्तता पर बल दिया है, जो कुछ सुनने समझने केलिए तैयार है,उसका परमसौभाग्य है कि भगवान् कृष्ण ऐसे उपदेशक (काऊंसलर, सलाहकार) साक्षात् उपलब्ध हैं।

हम सब भी परम सौभाग्यशाली हैं कि हमारा जन्म भारतमाता की गोद में हुआ है और गीतामाता अपनी स्नेहिल वातसल्य दृष्टि से हम सब को देख रही हैं।


सांख्ययोगोनाम द्वितीय अध्याय जिसे ज्ञानयोग भी कहा जाता है।(सांख्य, संख्या के कारण संज्ञित् है, २४ तत्वों के सम्मिलित काया में पच्चीसवां आत्मतत्व की विशद व्याख्या है) विषाद का समन सांख्य (ज्ञानयोग) से ही सम्भव है। अतः विषादयुक्तमन को गीता से जोड़ें---
द्वितीय अध्याय में ७२ श्लोक हैं। सब पर टिप्पणी स्थान और समयाभाव के कारण संभव नहीं, ईश्वरकृपा हुई तो भविष्य में वृहदाकार पुस्तक भले लिख दी जाय। यहां प्रसंगानुसार प्रमुख भावदशा और उसपर शीघ्र संयमित नियंत्रण पर ही विचार करेगें:--
श्रीभगवानुवाचः--
कुतस्तवा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितमा।
अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीर्तिकरमर्जुन ।।2 ।।
भगवान् कृष्ण ने विषादयुक्तमन वाले अर्जुन से कहा:--
ऐ अर्जुन!यह विषमभाव तेरे मन में कहां से आगया। यह आर्यों के चिन्तन के विरूद्ध, अस्वर्ग्य, कीर्ति का नाश करने वाला भाव, क्षत्रिय होकर भी युद्धक्षेत्र में क्यो?


इसी तरह छोटी बड़ी जीवन में आनेवाली कठिनाईयों के प्रति प्रत्येक विषादग्रस्त के प्रति सम्पर्क के पुरजन परिजन को सतर्क होने की जरूरत है।


क्लैव्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्वय्युपपद्यते।
क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्त्वोत्तिष्ठ परन्तप।।3।।
हे पार्थ! तुम इस प्रकार नपुंसकता को प्राप्त मत होओ, यह तुम्हारे जैसे योद्धा के लिए उचित नहीं है। हे परन्तप! तुम हृदय की इस दुर्बलता का परित्याग कर कर्मपथ में उठ खड़े हो जा।
यही उद्बोधन तो आज भी चाहे जो भी हो, जहां भी हो हम मे से हर को चाहिए। जब विमलमति हों तभी से हम "गीता सुगीता कर्तव्या------"में क्यों न दत्तचित्त हों?

क्रमशः!
धन्यवादाः!

--सत्यनारायण  पाण्डेय 


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