प्रिय बन्धुगण! श्रीमद्भगवद्गीता के विषादयोगनमप्रथम् अध्याय से मोक्षसंन्यसयोग अठारहवें अध्याय की यात्रा में सम्मिलित होने के लिए सादर आमंत्रित करता हूं। भूमिका कल ही दी जा चुकी है, फिर भी तथ्यों के स्पष्टिकरण के लिए यदा कदा पूर्व पीठिका का सुगम संयोग भी होता रहेगा।
सृष्टि के आरम्भ से लेकर आजतक, सत् युग से आज के कलयुग तक के इतिहास को खंगालने पर हम इस निष्कर्षपर पहुंचते हैं कि युद्ध हर काल में अनिवार्य रहा है, समय समय पर घटित होता रहा है। यहां महाभारत का युद्ध भी अवश्यमभावी सिद्ध हो चुका था, उस युग के सचेतक और प्रबुद्ध चिन्तक श्रीकृष्ण भावी अटल युद्ध को भी देख रहे थे और युद्ध के बाद जन-धन-विविध क्षेत्र की प्रतिभा का विनाश भी। अतः लोकशिक्षण के लिए समझौता का प्रयास ही नहीं अपितु समझौता के लिए दौत्यकर्म भी सहज स्वीकार किया। युद्ध अटल है, पर समझौता का रास्ता पारिवारिक स्तर से लेकर वैश्विक परिवेश में भी खुला रखने का प्रबल संदेश संसार को दिया।
ठीक है, सम्पूर्ण कुरूराज के बदले पांच पाण्डवों के लिए पांच ग्राम तो दूर दुर्योधन (सुयोधन, सही नाम है) सुई की नोक पर आने वाली भूमि भी युद्ध के बिना पाण्डवों को देनें से इनकार कर दिया--सूच्यग्रेऽपि (भूमि) न दास्यामि बिनायुद्धेन् केशव!
अब युद्ध की तैयारी हो गई। धर्मक्षेत्र कुरूक्षेत्र में दोनों ओर की सेनाएं डटकर खड़ी हो गयीं। पुत्रमोह में पड़ा:---
"धृतः राष्ट्रः येन् ---स धृतराष्टः । धृतराष्ट्र जो जन्म से अंधा है, व्यासप्रसादात् दिव्य दृष्टि युक्त संजय से जानना चाहा --युद्ध की इच्छा रखने वाले मेरे पुत्रों ने और पाण्डु पुत्रों ने क्या किया?
धृतराष्ट्र उवाच धर्मक्षेत्रे कुरूक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः। मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत संजय।।1।। अर्जुन उवाच सेनयोरूभयोर्मध्ये रथं स्थापय मे ऽच्युत्। यावदेतान्निरीक्षेऽहं योद्धुकामानवस्थितान्।2।। धृतराष्ट्र धर्मक्षत्रकुरूक्षेत्र = जहां युद्ध में वीरगति प्रप्त होने पर भी मोक्ष की प्राप्ति सुनिश्चत है। वहां क्या हो रहा है, जानना चाहा और अर्जुन भी कृष्ण से दोनों सेनाओं के मध्य रथ ले जाने को कहा।
अब हम सब भी यहां ध्यान रखें हम जहां भी रहते हों वही हमारा धर्मक्षेत्र है और जहां भी जो भी कर रहे हों वही हमारा "कर्मक्षेत्र"यानी "कुरूक्षेत्र"है। यहां कर्म-भोग सिद्धान्त के आधार पर अपने और पराये के भेद से ऊपर उठकर काम करें तो मोक्ष तक की यात्रा निर्वाध हो जाएगी।
अर्जुन की सोच अपने पराए के भेद के कारण विकृत होगई। कह उठता है:-- स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम् माधव ।36। हे माधव!मैं अपनें लोगों को मारकर सुखी कैसे हो पाऊंगा? धर्मक्षेत्र कर्मक्षेत्र में अपने पराए का भेद ही हमारे कर्तव्य में विकृति लाता है और हम अधोगति की ओर अग्रसर होने लगते हैं, इसका सदा ध्यान रखना चाहिए।
युद्ध न करने की अपनी समझ से बड़ी पर थोथी दलील वह कृष्ण के सामने रखता है,जैसे:---- लोग मारे जाएंगे, वर्णसंकरता आएगी, पूर्वजों को पिण्डादि क्रिया विलुप्त हो जाएगी। राज्य सुख लोभ के लिए असंख्य नरसंघार के लिए अनिश्चित्काल तक नर्क में रहना पड़ेगा।
इस प्रकार किंकर्तव्यविमूढ अर्जुन शोक् से उद्विग्न अर्जुन विषाद से ऐसा ग्रस्त हुआ कि रथ के पिछले भाग में धनुष बाण रख युद्ध से विमुख हो बैठ गया।
यहां ध्यान देने योग्य बात यह है कि तार्किक अर्जुन किसी की बात नहीं सुनता, पर उसकी किंकर्तव्यविमूढता और विषाद के संयोग ने उसकी किस्मत खोल दी:-- एवमुक्त्वार्जुनः संख्ये रथोपस्थ उपाविशत्। विसृज्य सशरं चापं शोकसंविग्नमानसः।।47।। क्रमशः! धन्यवादाः!