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Dr. S. N. Pandey |
सुप्रभातः सर्वेषां सहृदयानां आध्यात्मरूचिसम्पन्नानां विमलमतिनां कृते।
प्रिय जीवन और जगत के प्रति चिन्तनशील मेरे बन्धुगण!
कल के घोषित् अपने संकल्प और आपके स्नेहिल आश्वाशन की छांव में "श्रीमद्भगवद्गीता"जैसे गुरूग्रंथ पर अर्जुनविषादयोगो नाम प्रथमोऽध्यः से लेकर मोक्षसंन्यासयोगोनाम अष्टादशोऽध्यायःतक की यात्रा अपनी मति बुद्धि के अनुरूप संक्षेप में प्रतिदिन एक एक अध्याय को लेते हुए निवेदन करने की हिम्मत कर रहा हूं।
कृपा कर कहीं त्रुटि हो जाय तो अवश्य ही क्षमा करते हुए मुझे भी बेहिचक संकेत देंगे, ताकि उसका परिमार्जन कर सकूं।
गीता एक गम्भीर ग्रंथ है, उसपर कुछ भी लिख पाना मुझ जैसे अल्पज्ञ की चेष्टा, धृष्टता ही है, सागर की तरह विस्तृत एवं विविध बहुमूल्य मणिमाणिक्यप्रवालादि से परिपूर्ण है! एक जौहरी ही (विशिष्टज्ञानी, मर्मज्ञ) उनकी पहचान कर सकता है और जिसे जैसी आवश्यकता है, ग्रहण करने की सलाह देनें में समर्थ हो सकता है। मैं कोई ज्ञाता नहीं बस पिछले चालीस वर्षों में पारायण, प्रवचण, कई व्याख्याओं के अध्ययन के आधार पर ग्रहण किया है, "अल्पश्च कालः बहुविघ्नतास्यात्"अर्थात हमारे दैनन्दिन जीवन की व्यस्तता, सद्शास्रों के लिए समय की कमी, कम समय मे ही नाना प्रकार के विघ्नों का भी आना"सबको ध्यान में रखते हुए "गीता"का सार संक्षेप जो मेरी मतिबुद्धि में है, क्रमशः लिखने की धृष्टता आपके स्नेह संबल पर कर रहा हूं।
"गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैःशास्त्रविस्तरैः।
या स्वयं पद्मनाभस्यमुखपद्माद्विनिःसृता।।गीतामाहात्म्य।।4।।
अर्थात्, गीता को अपने लिए सहज बना लेने की चेष्टा हम में से प्रत्येक को करनी चाहिए। अन्य शास्त्रों के विस्तार में जाने की कोई आवश्यकता नहीं, क्योंकि यह तो स्वयं साक्षात् पद्मनाभ भगवान् विष्णु के मुख कमल से निकली है।
हम कर्मानुसार ही सही प्राप्त सुख सुविधा, अधिकार, धनसम्पदा के मद में इतने मस्त रहते हैं कि किसी की अच्छी सलाह भी सुनना या मानना अस्वीकार कर देते हैं, भले बड़ा नुकशान ही क्यों न हो जाय।हम बड़े-बड़े तर्क (जैसा कि भगवान् कृष्ण के समक्ष अर्जुन भी कर लेता है) कर अपनी ही बात रखना चाहते हैं, भले वह गलत ही क्यों न हो। यहां एक "कुंजी"ध्यान में अपने लिए भी रखनी है क्योंकि महाभारत के युद्ध के दौरान अर्जुन जिस 'धर्मक्षेत्र कुरूक्षेत्र'में भ्रमित हुआ था, हमारा धर्मक्षेत्र और कर्मक्षेत्र भी द्विविधा और संदेह से परे नहीं। पर यह भी सही है कि मदमस्तता में हम भी विषादयोग के बिना कुछ सुनने और मानने को तैयार कहां होते हैं।
विषादयोग अभिशाप नहीं वरदान है, यदि अर्जुन को जैसे कृष्ण मिल गए वैसे हमें भी कोई काउंसलर मिल जाय, और हम स्वस्थचित्त हो दूनी गति से जीवन पथ पर अग्रसर हो सकें!
धृतराष्ट्र उवाच
धर्मक्षेत्रे कुरूक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः।
मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत संजय।1.1
अर्जुन उवाच
सेनयोरूभयोर्मध्ये रथं स्थापय मेऽच्युत।
यावदेतान्निरीक्षेऽहं योद्धुकामानवस्थितान्।2।
बीच के कुछ अन्य श्लोंको अपनी बात रखने के लिए कल के लेख में अर्थ और व्याख्या सहित रखूंगा। अभी अर्जुन की शोकसंविग्न मनः स्थिति के परिचायक प्र.अ.के47 वें
श्लोक का उल्लेख कर वार्ताविस्तार के कारण विराम।
"एवमुक्त्वार्जुनः सड्ख्ये रथोपस्थ उपाविशता।
विसृज्य सशरं चापं शोकसंविग्नमानसः ।।
अद्यात्रैव विरम्यते।
क्रमशः.....
--सत्यनारायण पाण्डेय
क्रमशः.....
--सत्यनारायण पाण्डेय