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Dr. S.N.Pandey |
सुप्रभातः सर्वेषां मानवजीवनस्यसार्थकतायाः विषयेचिन्त्यमानानां जिज्ञाषुणां बुध्दिमतां बन्धुनां कृते।
प्रिय बन्धुओं !
यह सामान्य सिद्धान्त है, एक को खोकर एक को पाना चतुराई नहीं, मूर्खता कहलाती है, प्रेय की उपलब्धि में श्रेय को भूला देना कभी बुद्धिमानी नहीं कही जा सकती। प्रेय से अभिप्राय सासांरिक उपलब्धि है एवं श्रेय आध्यामिक, या पारलौकिक उपलब्धि को ईंगित करती है।
हमारे गीता रामायण आदि ग्रंथों में संसार में रहते हुए जीवन पद्धति की ऐसी व्यवस्था दर्शित है, कि उसका अनुसरण करता हुआ प्रत्येक मनुष्य "इह लोके सुखं भुक्त्वा चान्ते सत्यपुरं ययौ" --की योग्यता प्राप्त कर सकता है, पर विडम्बना यह है कि आधुनिकता के इस दौर में तथा भौतिक उपलब्धि की चिन्ता ने हमारी मौलिकता ही छीन लिया है। हमारी आंख खुलती भी है, तो तब खुलती है, जब हम भौतिक स्तर पर सबकुछ पाकर भी सर्वथा तन मन से असहाय हो जाते हैं।
अतः --कस्त्वम्? कोऽहम्? कुतः आयातः? पुनर्गमनीयं कुतः? आदि प्रश्नों का मन में गुंजना आवश्यक है।
आज तो आश्चर्य का विषय यह है कि श्मशान वैराग्य भी हमारे मन से कोसों दूर जा चुका है। मृत्यु शाश्वत सत्य है, इसका एहसास मित्रों या परिजनों मे से किसी की शवयात्रा में सम्मिलित हम लोग प्रत्यक्ष शवदाह देखते हुए भी जीवन और मृत्यु की सत्य की प्रतीति से दूर तिकड़म की चर्चा में ही संलग्न दिखते हैं।
जीवन की नश्वरता एवं गलत साधनों से धनसंग्रह के प्रति उस वैराग्य बोधस्थल पर भी अपनीं सोच में बदलाव न आना दुखद है।
"या लोकद्वय साधिनी चतुरता सा चातुरी चातुरी"
अर्थात् जो दोनो लोकों को सिद्ध कर दे वही चतुराई, चतुराई है। वह चतुराई, चतुराई क्या जो एक लोक के चक्कर में एक लोक को भूलवा दे।
अर्थात् जो दोनो लोकों को सिद्ध कर दे वही चतुराई, चतुराई है। वह चतुराई, चतुराई क्या जो एक लोक के चक्कर में एक लोक को भूलवा दे।
श्रीमद्भग्व्द्गीता में अठारह अध्याय हैं। गीता ज्ञान की यात्रा प्रथम अध्याय विषादयोग से लेकर मोक्षसंन्यासयोगोनाम अष्टादश अध्याय तक की है।
विषादयोग के बिना कुछ जानने और मानने की स्थिति जीवनपर्यन्त आती ही नहीं। हम में कुछ लोग ही भाग्यशाली होते हैं, जिनके जीवन में समय रहते विषाद् का संयोग हो जाता है, उनकी मोक्ष तक की यात्रा सहज ही शुरू हो जाती हैं। चार पुरूषार्थों में मोक्ष चौथा और अन्तिम पुरूषार्थ है--धर्म, अर्थ, काम तीन पुरूषार्थ इस क्रम में एक दूसरे के सहयोगी बनें कि एक दूसरे के साधक (सहयोगी) रहें, बाधक न हों तो मोक्ष स्वतः प्राप्त हो जाता है। संसार में रहने की कला, गीता व्याख्यायित् करती है "नलनीदलम्बुवत्"जल में कमल दल की तरह, संसार में रहकर भी संसार से परे रहने की सीख देती है, यही मुक्ति का सही मार्ग भी है।
"युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु।
युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा।।6 /17।
युक्तियुक्तता, औचित्य का ही तो ध्यान रखना है, लवण स्वाद के लिए जरूरी है पर उसके असंतुलित प्रयोग से जायका खराब हो जाता है।
संसार में रहने की युक्तियुक्तता ही तो सुखद योग है।
आहार विहार, क्रियमान कर्मों का सामंजस्य एवं संतुलन, शयन और जागरण की युक्तियुक्तता बस यही तो दुःखरहित योग का मार्ग है
------(क्रमशः)
--सत्यनारायण पाण्डेय