-----------------------------------------ऊँ अक्षरब्रह्मणे नमः!
सभी सुधीजनों को नमस्कार!
शब्द , शब्दार्थ, व्यवहारिक परिवेश के संन्दर्भ में कुछ दैनन्दिन जीवन से जुड़े शब्दों का अनुशीलन:--
दान, दक्षिणा, पाप, पुण्य, स्वर्ग, नर्क, निरक्षर, साक्षर। आदि।
दान मनुष्य मात्र का स्वाभाविक कर्म है। अपनी सात्विक कमाई का एक निश्चित अंश जरूरत मंदों के लिए निःस्वार्थ भाव से अर्पित करना।
प्राचीन काल में यह प्रथा थी कि ब्राह्ममुहुर्त में गुप्तदान के क्रम में सामर्थ्यवान लोग अन्न, वस्त्र, फल, द्रव्य अन्यान्य उपयोगी चीजें नगर के मुख्य चौराहे पर रख आते थे। जरूरतमंद अपनी-अपनी जरूरत के अनुसार वस्तुएं ग्रहण कर लेते थे।
यह अप्रत्यक्ष दान का अच्छा ढंग था, देने वाले और लेने वाले एक दूसरे को जान भी नहीं पाते थे।
यज्ञादि में यज्ञपुरोहित सहित अन्य याचक मंडली के लिए दान एक मुख्य विहित कर्म था, यज्ञ की सिद्धि के लिए दक्षिणा अनिवार्य कृत्य था, दक्षिणा देने के बाद ही यज्ञ सात्विक कहलाता था, अन्यथा तामसिक यज्ञ कहा जाता था।
"दक्षिणा विरहितं यज्ञं तामसं परिचक्षते", तथा "हतं यज्ञं अदक्षिणम्"
यज्ञकर्ता ब्राह्मण इसके अधिकारी माने जाते थे, जिसका उद्देश्य था उस निस्पृह पुरोहित के माध्यम से जरूरतमंद और असहायों तक सहायता पहुंचाया जाना। इसी लिए तो याज्ञिक सात्विक ब्राह्मणो की संज्ञा पुरस्य ग्रामस्य वा हितैषी (पुरः+हितः=पुरोहितः) पुरोहित कहलाते थे। आज की बात ही और है ,ब्रह्मण भी संग्रही हो गए , व्यवस्था भी भग्न सी हो गयी।
स्वर्ग और नर्क की स्थिति है भी या यह एक परिकल्पन मात्र है, यह विवाद चलता रहता है।
सु+वर्ग =स्वर्ग (यण् सन्धि) सु=अच्छा, वर्ग =स्थल, भूभाग। तात्पर्य सुन्दर सुखद स्थल से जुड़ा है। हम ही अपने शास्त्र द्वारा सुनिश्चित स्वार्थ रहित कृत्यों से जहां रहते हैं , उसे सु वर्ग यानि स्वर्ग बना देते हैं।
ठीक इसके विपरीत आचरण से स्वर्ग भी शीघ्र नर्क में परिवर्तित हो जाता है। मेरी समझ मे(नञ् अर्कः=सूर्यः) जहां ज्ञान रूप प्रकाश का अभाव अन्घतमस् से घिरा, दुख दैन्य से भरा स्थान ही तो नर्क है।
इस तरह स्पष्ट है स्वर्ग और नर्क के निर्माता और भोक्ता हम खुद हैं, फिर दोनो के अस्तित्व के प्रति संदेह कैसा?
पाप और पुण्य ही तो है दो कमाई जीव मात्र की, विशेषकर मानवमात्र की। कहा भी है:--
अष्टादश पुराणेषु व्यासस्य वचनं द्वयम्।
परोपकारः पुण्याय पापाय पर पीडनम्।।
अर्थात् अठारह पुराणो में निष्कर्ष स्वरूप भगवान व्यास ने दो बातें ही मुख्य रूप से कही है:-- पुण्य कमाना चाहते हो परोपकार करो, पाप कमाना चाहते हो दूसरों को पीड़ा पहुंचाओ।
क्या ही संक्षिप्त और सुन्दर परिभाषा "पुण्य और पाप"की उपलब्ध है। मर्जी अपनी अपनी।
निः अक्षर =निरक्षर, अक्षरेण सहितः साक्षरः।
अकारान्त साक्षर शब्द प्रथमा विभक्ति के तीनों वचनों में :-
साक्षरः साक्षरौ साक्षराः होगा।
निम्न श्लोक को देखें :--
सरसं विपरीतं चेत् सरसत्वं न मुञ्चति।
साक्षराः विपरीताश्चेत् राक्षसाः एव केवलम्।।
अर्थात सरस शब्द को आप जितनी बार ईधर से ऊधर और ऊधर से ईधर उलट कर पढें वह हर हाल में सरस ही बना रहेगा।
साक्षराः को लीजिए ऊलटा पढने के साथ साथ यहां अभिप्राय इस बात से है कि पढा लिखा व्यक्ति अर्जित ज्ञान का दुरूपयोग करने लग जाय तो वह ऊलटा (विपरीत्) आचरण के कारण--
साक्षराः उलटा कर पढने पर राक्षसाः बन जाता है।
सधन्यवाद प्रेषित।
डॉ. सत्यनारायण पाण्डेय
सभी सुधीजनों को नमस्कार!
शब्द , शब्दार्थ, व्यवहारिक परिवेश के संन्दर्भ में कुछ दैनन्दिन जीवन से जुड़े शब्दों का अनुशीलन:--
दान, दक्षिणा, पाप, पुण्य, स्वर्ग, नर्क, निरक्षर, साक्षर। आदि।
दान मनुष्य मात्र का स्वाभाविक कर्म है। अपनी सात्विक कमाई का एक निश्चित अंश जरूरत मंदों के लिए निःस्वार्थ भाव से अर्पित करना।
प्राचीन काल में यह प्रथा थी कि ब्राह्ममुहुर्त में गुप्तदान के क्रम में सामर्थ्यवान लोग अन्न, वस्त्र, फल, द्रव्य अन्यान्य उपयोगी चीजें नगर के मुख्य चौराहे पर रख आते थे। जरूरतमंद अपनी-अपनी जरूरत के अनुसार वस्तुएं ग्रहण कर लेते थे।
यह अप्रत्यक्ष दान का अच्छा ढंग था, देने वाले और लेने वाले एक दूसरे को जान भी नहीं पाते थे।
यज्ञादि में यज्ञपुरोहित सहित अन्य याचक मंडली के लिए दान एक मुख्य विहित कर्म था, यज्ञ की सिद्धि के लिए दक्षिणा अनिवार्य कृत्य था, दक्षिणा देने के बाद ही यज्ञ सात्विक कहलाता था, अन्यथा तामसिक यज्ञ कहा जाता था।
"दक्षिणा विरहितं यज्ञं तामसं परिचक्षते", तथा "हतं यज्ञं अदक्षिणम्"
यज्ञकर्ता ब्राह्मण इसके अधिकारी माने जाते थे, जिसका उद्देश्य था उस निस्पृह पुरोहित के माध्यम से जरूरतमंद और असहायों तक सहायता पहुंचाया जाना। इसी लिए तो याज्ञिक सात्विक ब्राह्मणो की संज्ञा पुरस्य ग्रामस्य वा हितैषी (पुरः+हितः=पुरोहितः) पुरोहित कहलाते थे। आज की बात ही और है ,ब्रह्मण भी संग्रही हो गए , व्यवस्था भी भग्न सी हो गयी।
स्वर्ग और नर्क की स्थिति है भी या यह एक परिकल्पन मात्र है, यह विवाद चलता रहता है।
सु+वर्ग =स्वर्ग (यण् सन्धि) सु=अच्छा, वर्ग =स्थल, भूभाग। तात्पर्य सुन्दर सुखद स्थल से जुड़ा है। हम ही अपने शास्त्र द्वारा सुनिश्चित स्वार्थ रहित कृत्यों से जहां रहते हैं , उसे सु वर्ग यानि स्वर्ग बना देते हैं।
ठीक इसके विपरीत आचरण से स्वर्ग भी शीघ्र नर्क में परिवर्तित हो जाता है। मेरी समझ मे(नञ् अर्कः=सूर्यः) जहां ज्ञान रूप प्रकाश का अभाव अन्घतमस् से घिरा, दुख दैन्य से भरा स्थान ही तो नर्क है।
इस तरह स्पष्ट है स्वर्ग और नर्क के निर्माता और भोक्ता हम खुद हैं, फिर दोनो के अस्तित्व के प्रति संदेह कैसा?
पाप और पुण्य ही तो है दो कमाई जीव मात्र की, विशेषकर मानवमात्र की। कहा भी है:--
अष्टादश पुराणेषु व्यासस्य वचनं द्वयम्।
परोपकारः पुण्याय पापाय पर पीडनम्।।
अर्थात् अठारह पुराणो में निष्कर्ष स्वरूप भगवान व्यास ने दो बातें ही मुख्य रूप से कही है:-- पुण्य कमाना चाहते हो परोपकार करो, पाप कमाना चाहते हो दूसरों को पीड़ा पहुंचाओ।
क्या ही संक्षिप्त और सुन्दर परिभाषा "पुण्य और पाप"की उपलब्ध है। मर्जी अपनी अपनी।
निः अक्षर =निरक्षर, अक्षरेण सहितः साक्षरः।
अकारान्त साक्षर शब्द प्रथमा विभक्ति के तीनों वचनों में :-
साक्षरः साक्षरौ साक्षराः होगा।
निम्न श्लोक को देखें :--
सरसं विपरीतं चेत् सरसत्वं न मुञ्चति।
साक्षराः विपरीताश्चेत् राक्षसाः एव केवलम्।।
अर्थात सरस शब्द को आप जितनी बार ईधर से ऊधर और ऊधर से ईधर उलट कर पढें वह हर हाल में सरस ही बना रहेगा।
साक्षराः को लीजिए ऊलटा पढने के साथ साथ यहां अभिप्राय इस बात से है कि पढा लिखा व्यक्ति अर्जित ज्ञान का दुरूपयोग करने लग जाय तो वह ऊलटा (विपरीत्) आचरण के कारण--
साक्षराः उलटा कर पढने पर राक्षसाः बन जाता है।
सधन्यवाद प्रेषित।
डॉ. सत्यनारायण पाण्डेय