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सुप्रभातम्! जय भास्करः! १६ :: सत्य नारायण पाण्डेय

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पापा से बातचीत :: एक अंश
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अभी पितृपक्ष चल रहा है! ब्राह्मणों के दान ग्रहण करने और ऐसा करने के परिणाम दुष्परिणाम से सम्बंधित कई कुतर्क एवं भ्रांतियों को लेकर एक सहज सी बातचीत का कुछ अंश. सोचा यहाँ भी संकलित हो जाए!


Dr. S. N. Pandey


यह सत्य है कि किसी के हाथों दान दक्षिणा ग्रहण करना अपने तेज़ को, पुण्य को समाप्त कर देता है।
अधोगति मिलती है, पिशाच योनि भी मिली है।
आदिशंकराचार्य और पिशाच वार्ता, प्रेतत्व से मुक्ति का उपाय किया जाना, रामेश्वरम् के दर्शनार्थियों के दर्शन के एक प्रतिशत प्रत्येक दर्शनार्थी के पुण्य प्राप्ति के वरदान से प्रेतत्वमुक्ति।
संक्षेप में यह बात उभर कर आती है, दान दक्षिणा ग्रहण करने से ब्राह्मणत्व के तेज में कमी आती है, वहीं पुण्य अर्जन कर उस तेज को पुनः हासिल भी किया जा सकता है।
अतः ब्राह्मण केलिए अनिवार्य था, या है:---
त्रिकाल संध्या, नित्य कम से कम दस हजार गायत्री मंत्र का जप, सत्याचरण का पालन, ईश्वरनाम कीर्तन, भजन पूजन, भटके को सन्मार्ग दिखाना।
फिर से इन सत्कर्मो के प्रप्त तेज रूपी अग्नि में कर्मनिष्ठ ब्राह्मण के सारे दोष जल कर भष्म हो जाते हैं और शरणागत यजमान का भी कल्याण हो जाता है।
"ज्ञानाग्निदग्ध कर्माणि तमाहुः पण्डितं बुधाः।"
अनजाने में स्वर्णलवंग युक्त ताम्बुल ग्रहण करने के कारण आकाश मार्ग से हमारे पूर्वज शाकद्वीप नहीं लौट सके और साम्ब के द्वारा भूधन, गोधन, अन्न, द्रव्यादि से संतुष्ट कर जम्बूद्वीप में बसाये गए।
हमारे पूर्वज शाकद्वीप से आने के बाद यज्ञोपरान्त गुप्तरूप से दिए गए दान से तेज में कम तो हुए थे, पर आज की तरह निस्तेज नहीं थे, कारण पर्याप्त जप, तप, सत्याचार, सदाचार, देव पूजन, भजनादि से दानग्रहण के दुष्प्रभाव का समन कर लेते थे।
आज हम छल छद्म से यजमान से दक्षिणा भी ग्रहण करने से नहीं चुकते। यजमान से उसके हित के लिए जप, तप, पाठादि के संकल्प को भी पूरा नहीं करते, दक्षिणा पूरी लेते हैं, स्वाभाविक है, इस कृत्य से ब्राह्मण का पुण्य तो क्षीण होता ही है, गर्हितदान उसे पिशाचत्व भी प्रदान करते हैं।
देवी भागवत् में एक कथा आती है:-
'किसी कारणवश देव गुरू वृहस्पति अन्तर्ध्यान हो गए। असुरों का अत्याचार बढने लगा।देवता त्राहि त्राहि करने लगे।असुरों को वश में करने केलिए विहित यज्ञ आवश्यक था, गुरू वृहस्पति गुप्त हो गए थे।
इन्द्र ने शुक्राचार्य के पुत्र से पौरोहित्य के लिए आग्रह किया। शुक्राचार्य के पुत्र ने विचार किया, इन्द्र की यज्ञसिद्ध के लिए हमें दक्षिणा लेनी पड़ेगी, क्योंकि सिद्धान्त है "हतं यज्ञं अदिक्षणम्"
और दक्षिणा ग्रहण से मेरा तेज घटेगा, याचक इन्द्र जो शरण में आए हैं, अपने अहित की कल्पना से इन्कार करता हूं तो, शरणागत त्याग दोष का भागी बनूंगा।
अन्ततः यज्ञ सम्पादन के बाद जप तप स्वाध्यायादि से अपने पूर्व तेज को प्राप्त कर लेने की सोच के साथ इन्द्र के यज्ञसम्पादन को उन्होने स्वीकार किया था।
इस विशद विवेचन के बाद यह स्पष्ट हो जाना चाहिए कि पौरोहित्य कर्म में संलग्न  ब्राह्मणों का नित्यनैमित्तिक जीवन कैसा होना चाहिए।

जय  भास्कर !!

--डॉ. सत्यनारायण पाण्डेय 


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