$ 0 0 रेलधीरे धीरेबढती है गंतव्य की ओरकितने ही दृश्ययादों में संजोनेयादें,जिनका होना है,न कोई ओर न छोरबस भागते हुए ही बीतनी है रातेंभागते हुए ही होती है भोरकभी तो ठहर, ज़िन्दगी!किसी ठौर***हर पड़ाव से बढ़ते हुएवहीँ कहीं थोड़ा साछूट जाते हैं हमऔर यूँ छूटते छूटते एक दिनख़त्म हो जानी है यात्रा हमेशा के लिए***इस एकांत मेंविराट पर्वत कीअचलता महसूस कीअथाह पानी केबहते निर्मल स्वरूप कोआत्मसात कियापत्तों के हरेपन मेंदर्द की हूक सुनीबारिश की बूंदों मेंनेह के उज्ज्वल इंद्रधनुषी रंग देखेइन सब देखने मेंअपनी लघुता भी देखीप्रकृति के यूं होने की सार्थकता महसूस करते हुएअपने होने की निरर्थकता को भी जानाकि यात्राएं हमें हमारे सच तक ही तो ले जाती हैंहर यात्रा वस्तुत: खुद से खुद की यात्रा ही तो है***किस सदी के ईंट पत्थरये भी एक अद्भुत मंज़रइतिहास इन किलों में मुस्कुराता हैअंधेरा यहां, प्रकाश का ही, प्रतिरूप हो जाता है***सूरज है तो डूबेगा भीलेकिन फिर उग आएगासवेरा लेकरजाता है रात को वहसारी जिम्मेदारियांचाँद को देकरकि धरा परजितनी बेचैन आत्माएं हैंसबको चांदनी मिली रहेजब भोर में उगे वहतो आस विश्वास की क्यारीसबके आँगन खिली रहे !!