हम सबको एक रोज़ देखनी है जीवन की शाम… एक रोज़ हम सबको बूढ़ा होना है, फिर भी जाने क्यूँ "आज" इस बात का हमें एहसास ही नहीं हो पाता… एकाकी शाम को नहीं बैठ पाते हम एकाकी बूढ़े बरगद के नीचे, भागते जो रहना होता है हमें!
कुछ एक ऐसे बरगदों का दर्द देख कभी लिखी गयी थी ये पंक्तियाँ, स्वयं को ही यह समझाने को कि जीवन में बुढ़ापे की शक्ल में जब दोबारे बचपन आता है, तो थोडा प्यार मांगता है, चाहता है कि कोई सुने उसे… हमें बस इतना करना है कि उनके पास बस बैठ जाना है कुछ पल के लिए, आशीष और अनुभव के पुष्प ही मिलेंगे! कहते हैं न, किसी को कुछ देना है तो अपना समय दो… इस उपहार से कीमती कहीं कुछ नहीं!
सांझ ढ़ले...
धीरे से आकर कोई
केवल इतना ही पूछ ले उनसे अगर-
कैसे हैं आप?
अच्छे तो हैं?
तो हो जायेगी न साध पूरी...
अधूरी होकर भी न होगी बात अधूरी
पर इतना करने से भी हम चूक जाते हैं
जुड़ सकते हैं पल भर में पर रुक जाते हैं
समर्थता जाने क्यूँ कोमल नहीं होती?
उसके आँखों की पोर गीली ही नहीं होती!
पर हमेशा नहीं रहती कायम ये बात
आएगी, आनी ही है अशक्तता की रात
तब दो बोल को तरसते हुए
खोये होंगे
किसी कोहरे में हम...
भागता वक़्त
नहीं करेगा
अपनी आँखें नम...
सोचिये-
कोई होगा क्या तब
जो जाएगा हमारी दुविधा भांप?
विह्वल स्वर में हमारी खोज खबर लेगा-
अच्छे तो हैं न आप...!