चलते रहने में ही कविता है… चलते रहने में ही प्रवाहमय भावों का अंकन है… चलते रहने में ही भलाई है कि चलते रहेंगे हम तभी पहुंचेंगे उन पड़ावों तक जो स्वयं मंजिल का प्रारूप होगी… जहां कविता अपनी सम्पूर्णता में खिली होगी… जहा होंगे छाँव के छंद और मन की भाषा! यात्रारत जब पहुंचे हम एक ऐसी मुकम्मल कविता तक तो कितनी ही अनुवाद की गयी कवितायेँ पुनः हमारे भीतर खिल गयीं, कविता ने ज्यूँ बिठाया अपने पास तो कितनी ही यात्राओं हेतु राहें सुझा दीं.…
हर एक पंक्ति इतनी सधी हुई कि हर एक के इर्द गिर्द बुनी जा सकती हैं कई कहानियां, कितनी ही कविताओं का अक्स दिख पड़ता है अनायास ही इस कविताकी पंक्तियों में!
सफ़र की हो तीन कविताएं, ग़ुमनाम शाम की फीक़ी पीली रोशनी में टकराते फतिंगों की बेमतलब बेचैनी और व्यर्थता में बीतते जीवन की अकुलाहट की एक कविता हो.
सफ़र की हो तीन कविताएं, ग़ुमनाम शाम की फीक़ी पीली रोशनी में टकराते फतिंगों की बेमतलब बेचैनी और व्यर्थता में बीतते जीवन की अकुलाहट की एक कविता हो.
इस अकुलाहट को बिलकुल वैसे ही अपने में उतारती कविता को समझना हो तो तनिक रुकना होगा… रुक कर शब्दों से ज्यादा उनके बीच की ख़ामोशी को पढ़ना होगा… अपनी उदासीनता त्यागनी होगी… कविता को समझना हो तो तनिक झुकना होगा, तनिक ठहरना होगा…! कहीं से गुज़रते हुए आना हो सकता है, पर आ गए सच में तो, कविता फिर बिना आत्मसात हुए जाने नहीं देती. कई बार चमत्कृत होते हैं कविताओं से गुज़रते हुए, कोई कविता जो अनूदित होने को सहर्ष तैयार हो जाए तो हम अपनी भाषा में उन्हें सहेज भी लेते हैं.
हिन्दी की हो, एक कविता दु:ख की हो.
इस अकुलाहट को बिलकुल वैसे ही अपने में उतारती कविता को समझना हो तो तनिक रुकना होगा… रुक कर शब्दों से ज्यादा उनके बीच की ख़ामोशी को पढ़ना होगा… अपनी उदासीनता त्यागनी होगी… कविता को समझना हो तो तनिक झुकना होगा, तनिक ठहरना होगा…! कहीं से गुज़रते हुए आना हो सकता है, पर आ गए सच में तो, कविता फिर बिना आत्मसात हुए जाने नहीं देती. कई बार चमत्कृत होते हैं कविताओं से गुज़रते हुए, कोई कविता जो अनूदित होने को सहर्ष तैयार हो जाए तो हम अपनी भाषा में उन्हें सहेज भी लेते हैं.
हिन्दी की हो, एक कविता दु:ख की हो.
इस पंक्ति पर विराम लेने वाली यहहिंदी की कविता इतना कुछ समाये हुए थी भीतर कि दुःख, जीवन, मृत्यु पर कितने ही अनुवाद कितनी ही कवितायेँ स्मरण हो आयीं, गर्वान्वित हुआ मन ये अनुभव कर कि एक हिंदी की समग्र कविता ने इस अकिंचन को कितनी ही अनूदित एवं अनूदित होने को बेचैन कविताओं से जोड़ दिया अपने एक पाठ के प्रताप से!
कवि योरान ग्रेइदर एक जगह कहते हैं ---
और कविता है मात्र पगडंडियों का जालक्रम
सौंपी गयी उन्हें जो हैं उसके प्रति उदासीन.
अगर जालक्रम ही है, तो हमें इस जालक्रम को समझने की कोशिश करनी होगी… क्यूंकि कविता के प्रति उदासीनता कहीं से भी कोई अच्छी बात नहीं… हम कवि को आश्वस्त करेंगे कि हममें है उत्साह कविता के स्वागत का, उसे आत्मसात करने का कि वह निश्चिंत हो सौंप सकता है अपनी रचना हमारे हाथों में और जब यह प्रश्न करे कवि ---
अगर जालक्रम ही है, तो हमें इस जालक्रम को समझने की कोशिश करनी होगी… क्यूंकि कविता के प्रति उदासीनता कहीं से भी कोई अच्छी बात नहीं…
तो आज मुझे क्या लिखना चाहिए?
तो हममें इतनी प्रतिबद्धता होनी चाहिए कि कह सकें लिखो जो करता है तुम्हें अभिभूत कि हम भी होना चाहते हैं अभिभूत!
जब इस कविताने अभिभूत किया हमें तो हम योरान ग्रेइदर की कविता और उसके प्रश्नों से उद्वेलित हो उसके अर्थ ढूँढने निकल पड़े! विस्मित हैं कि कैसे जुड़ा होता है न सब कुछ… एक कविता कितने भावों को समेटे रहती है और उसका व्यापक धरातल, उसके व्यापक सन्दर्भ, देश-काल-परिस्थिति से परे, कितने ही शाश्वत अव्ययों को आपस में महीन धागों से जोड़ते जाते हैं. अपने धरातल पर खड़ा होने की जगह दे, कई जानी पहचानी विदेशी भाषा की कविताओं का पड़ताल कर पाने की समझ देने को, "एक मामूली कविता की किताब" शीर्षक वाली विशिष्ट व कालजयी कविता का कोटि कोटि आभार.
कालजयी बहुत बड़ा शब्द लग सकता है, पर कविताओं के समक्ष कई बार हमने ऐसे शब्दों को छोटा होते देखा है! कवितायेँ होती हैं कालजयी, उनके अर्थ कभी पुराने नहीं पड़ते क्यूंकि वो हर रोज़ स्वयं को नए सिरे से गढ़ती है, स्वयं परिभाषित करती है काल को, तो हुई न कालजयी!
दरअसल, हम लिखने बैठे थे अपनी रोम यात्रा के बारे में, लेकिन लिख गए ये सबकुछ! ये बात पुष्ट होती रही है कई बार, आज भी हुई कि हम नहीं लिखते, कुछ है जो स्वतः लिख जाता वैसे ही जैसा कलम चाहती है. और लिख जाने के बाद हम खुद ही अचंभित कि ये क्या है जो ऐसे सफ़र की ज़मीन तैयार करता है…?
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जो भी हो ये सफ़र अच्छा रहा. अब कम से कम रोम यात्रा की शुरुआत कर लेते हैं आज. कहते है न, शुरुआत सबसे मुश्किल होती है, हो गयी तो समझो आधा काम हो गया. अब शुरू नहीं कर पाए तो पड़ा हुआ है न महीनों से यह मन में ही कि लिख जाना है यात्रा को, कि सहेज लेना हमेशा अच्छा होता है. चलिए आज शुरू हो जाएगा, अब वेनिस, उप्सालाऔर एस्टोनियाको लिख चुके हैं तो "रोम" भी चाह रहा है कि वह भी लिखा जाए पुनः एक बार अनुभूति की राह में यात्रा को जीते हुए.
वेनिस से होते हुए रात भर की ट्रेन यात्रा ने हमें रोम पहुँचाया… पहुँचने के बाद की यात्रा आज कहीं बीच से शुरू करते हैं… ऐसे ही रैंडम, कहीं से भी कोई छोर पकड़ कर… जैसे कोई एक भाव का सिरा पकड़ कर लिखी जाती है कविता!
कोलोसियमकी खँडहरीय भव्यता पर कोई कविता हो और यह सफ़र की कविताओं में गिनी जाए… वैसे, ऐसे अनजाने अनचीन्हे सुदूर इतिहास की यात्रा, ठीक उस कविता की तरह होती है जो हम अपने भीतर अपने को पहचानने का उपक्रम करते हुए किसी उदास शाम को लिख जाते हैं…!
*** कहीं की यात्रा कहीं पहुँच रही है… अभी कविताओंसे ही घिरा है मन, यात्रा के तथ्य और इतिहास को लिख पाने में अक्षम महसूस कर रहा है, सो कुछ तस्वीरों के साथ लेते हैं विराम!पढ़िए कवितायेँ, हम भी अब पढ़ते हैं कवितायेँ, रोम कल घूमेंगे…!
कोलोसियमकी खँडहरीय भव्यता पर कोई कविता हो और यह सफ़र की कविताओं में गिनी जाए… वैसे, ऐसे अनजाने अनचीन्हे सुदूर इतिहास की यात्रा, ठीक उस कविता की तरह होती है जो हम अपने भीतर अपने को पहचानने का उपक्रम करते हुए किसी उदास शाम को लिख जाते हैं…!
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